स्टोरी हाइलाइट्स
भारतीय इतिहास का आरम्भ आर्यों के आगमन के साथ ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी में किसी समय हुआ।महाभारत संसार का सबसे लम्बा महाकाव्य है।वेद– वेद संस्कृति की विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ हैं ‘जानना’ अथवा ‘ज्ञान प्राप्त करना’।
भारतीय इतिहास का आरम्भ आर्यों के आगमन के साथ ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी में किसी समय हुआ।
महाभारत संसार का सबसे लम्बा महाकाव्य है।
वेद– वेद संस्कृति की विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ हैं ‘जानना’ अथवा ‘ज्ञान प्राप्त करना’।
पंचजन – ये पांच आर्य कबीले थे (अनु. दुहयु, युद, तुवर्स, पुरु)
दस राजाओं के युद्ध का कारण- भरत जन के राजा सुदास ने विश्वामित्र को कुल पुरोहित से हटाकर वशिष्ठ को पुरोहित बना दिया। विश्वामित्र ने दस राजाओं को संगठित किया और सुदास पर आक्रमण कर दिया, लेकिन पराजित हुए। यह युद्ध परूष्णी (रावी) नदी के तट पर लड़ा गया था।
ब्रह्मवर्त– सरस्वती, दृशद्वती तथा आयथा नदियों की भूमि को ब्रह्मवर्त कहा जाता था।
ब्रहर्षि – गंगा, यमुना तथा उसके आस-पास के प्रदेश को ब्रह्मर्षि प्रदेश कहा जाता था।
आर्यावर्त– हिमालय पर्वत से लेकर विन्ध्य पर्वत। तथा पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र के सम्पूर्ण भाग को।
सप्त सैंधव– सिंधु झेलम (वितस्ता), चिनाव (अस्कनी) , रावी (पकष्णी), व्यास (बिपास), सतलज (शतुद्रि) और सरस्वती।
सप्तसिंधु – सिन्धु 2. वितस्ता (झेलम) 3. असवनी (चिनाब) 4. परुण्णी (रावी) 5. बिपाशा (व्यास) 6. शुतुद्रि (सतजल) 7. सुरसुती (सरस्वती)
ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 से 1000 र्इ. पू. है। इसके 3 पाठ मिलते हैं–
साकल- इसमें 1017 सूक्त तथा 10 मंडल है।
बालखिल्य – इसमें 11 सूक्त (हस्तलिखित प्रतियाँ-परिशिष्ट) हैं।
वास्कल- इसमें 56 मंत्र है।
ऋग्वेदी को होतृ नामक पुरोहित गाते थे जिसे यज्ञों के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए, ऋषियों द्वारा संग्रहित किया गया है। इसकी अनेक संहितायें हैं जिसमें शाकल संहिता ही उपलब्ध है। यजुर्वेद संहिता में विविध यज्ञों, उनके विधि-विधानों तथा अन्य कर्मकाण्डों का विस्तृत विवेचन मिलता है। सामवेद यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मंत्रों का संग्रह हैं। चारों वेदों में ऋग्वेद सबसे पुराना तथा अथर्ववेद सबसे बाद का है। वैदिक ज्ञान श्रुति (सुनकर) के द्वारा किया जाता था। यही कारण है कि वेदों को श्रुति की संज्ञा दी गयी । वैदिक पद्य को ऋचा, गद्य को यजुष और गेय पद को साम कहते हैं।
ऋग्वेद के समस्त सूक्त 10 मंडलों में विभक्त हैं। प्रत्येक सूक्त के साथ किसी ऋषि अथवा देवता का नाम भी मिलता है। ऋषि उस सूक्त का रचयिता होता है। सूक्त में जिस देवता की स्तुति होती है उस देवता का नामोल्लेख भी कर दिया जाता है।
कुछ सूक्तों अथवा मंत्रों के रचयिता इस प्रकार है– (i) गृत्समद, (ii) विश्वामित्र (iii) वामदेव (vi) अत्रि, (v) भारद्वाज, (vi) वशिष्ठ।
शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कहते हैं। शुक्ल यजुर्वेद में 40 अध्याय है। प्रत्येक का सम्बन्ध किसी न किसी याज्ञिक अनुष्ठान से हैं। इसका अन्तिम अध्याय (ईशोपनिषद) है जिसका विषय आध्यात्मिक है।
अर्थववेद की दो शाखायें शौनक और पिप्पलाद है।
ऋग्वेद में भरत जन के राजकुमारों का उल्लेख मिलता है। भरत लोगों के राजवंश का नाम त्रित्सु मालुम होता है। भरत राजाओं के कुल पुरोहित वशिष्ठ थे। दासराज्ञ युद्ध में एक तरफ आर्य तथा दूसरी तरफ आर्य-अनार्य दोनों थे। अपने उत्कृष्ट सैनिक संगठन और प्रबल अश्वारोहियों के कारण इस युद्ध में आर्यों की जीत हुई। अनार्यों के राजा भेद को सुदास ने पराजित किया था। अनार्य काले थे और उनकी नाक चिपटी होती थी। ऋग्वेद में उन्हें बिना नाक वाले कहा गया है। उनकी भाषा भिन्न थी।
आर्यों का निवास स्थान
डॉ. अविनाश चन्द्र के अनुसार आर्यों का आदि देश सप्तसैन्धवा हैं। बाल गंगाधर तिलक के अनुसार आर्यों का आदि देश उत्तरी ध्रुव हैं। गाइल्स महोदय का मत है कि आर्यों का आदि देश हंगरी अथवा डेन्यूब नदी की घाटी था। नेहरिंग महोदय के अनुसार आर्यों का आदि देश दक्षिणी रूस था। मैक्समूलर आर्यों के आदि देश को मध्य एशिया मानते हैं। निष्कर्षत: ब्रैन्डेस्टीन के मत को सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है जिन्होंने आर्यों का आदि देश दक्षिण रूस को माना है।
वेद
आर्यों के चार वेद हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद।
ऋग्वेद– इसमें 10 मण्डल तथा 1028 सूक्त हैं। इसमें श्लोकों की कुल संख्या 10462 है।
यजुर्वेद– इसके दो भाग है- शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजर्वेद।
सामवेद – इसमें 1549 ऋचायें हैं, इसमें मात्र 78 नयी हैं और अन्य ऋग्वेद से ली गई है।
अथर्ववेद– इसमें 20 काण्ड, 731 सूक्त तथा 5987 मंत्रों का संग्रह है। इसमें लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से लिये गये है।
ऋग्वेद का रचना काल 1500 र्इ. पू. से 1000 ई.पू. तक माना जाता है। ऋग्वेद में 33 देवताओं का उल्लेख है।
यदु और तुर्वशी ऋग्वेद के प्रधान जन थे, जिन्हें इन्द्र कहीं दूर से लाये थे।
कई ऋषाओं में यदु का विशेष सम्बन्ध पशु से जो नाम पर्शिया के प्राचीन निवासियों का था स्थापित किया गया है।
इन्द्र के उपासक दो प्रतिद्वन्द्वी दलों में विभक्त थे, एक में सृजय और इनके मित्र भरत जन थे। दूसरे दल में यदु, तुर्वश, अनु, दह्यु और पुरू नाम के जन थे।
शम्बर नामक दासों के सरदार से लड़ने का श्रेय दिवोदास को है। अष्टम में आठ मन्त्र और मण्डल ,में दस मन्त्र होते हैं। ऋग्वेद के पुराने मंत्र प्रधानत: मण्डल कण्व व अंगिरा से रचित है। वैदिक आचार-विचार में यज्ञ का प्रधान स्थान था।
ऋग्वेद में यमुना का प्रयोग तीन बार व गंगा, सरयू का प्रयोग एक बार हुआ है। ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख 275 बार हुआ है।
वेद ब्राह्मण उपवेद ऋग्वेद ऐतरेय, कौषीतकि आयुर्वेद यजुर्वेद शतपथ धनुर्वेद सामवेद पंचविश (ताण्ड्य) गन्धर्व वेद
अथर्ववेद गोपथ अर्थवेद या शिल्पवेद संहिता यज्ञ कराने वाला कार्य
1- ऋग्वेद होता (होतृ) देवताओं को यज्ञ में बुलाना और ऋचाओं का पाठ करते हुए देवों की स्तुति करना।
2- यजुर्वेद अध्वर्यु
3- सामवेद उद्गाता ऋचाओं का सस्वर गान करना
4- अथर्ववेद ब्रह्मा यज्ञ का पूरा निरीक्षण करना जिससे कोई त्रुटि न रहे।
ऋग्वेद के प्रथम और अंतिम मंडल (अर्थात् दशम् मंडल) को क्षेपक माना जाता है। आक्रमण अथवा उसकी सम्भावना होने पर, अपने धन-जन की रक्षा हेतु, आर्य विशिष्ट प्रकार से बने हुए दुर्गों में शरण लेते थे। इन्हें पुर कहते थे।
इन दुर्गों के अतिरिक्त आर्यों के ग्राम भी कभी-कभी दीवारों अथवा खाइयों से संरक्षित रहते थे।
युद्ध के किए राजा के पास सेना होती थी। इनकी सेना में रथारोही रथों पर चढ़कर लड़ते थे, जबकि साधारण सैनिक पैदल लडते थे।
ऋग्वेद में रथारोहियों का उल्लेख नहीं मिलता। युद्ध में हाथियों का प्रयोग अभी तक अप्रचलित था। सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी स्वयं राजा होता था। युद्ध के अवसर पर वह सेना का नेतृत्व करता था। युद्ध प्रमुखतया धनुष-बाण से होता था। दो प्रकार के तीर काम में लाये जाते थे- एक विषाक्त और सींग के मुखवाला और दूसरा तांबे या लोहे के मुखवाला।
ऋग्वैदिक काल के अन्याय आयुधों में बरछी भाला, फरसा और तलवार उल्लेखनीय है। ऋग्वेद में कहीं-कहीं पर पुर चरिष्णु का उल्लेख मिलता हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दुर्गों को गिराने के लिए इंजन थे।
राजनीतिक संगठन
राजनीतिक संगठन का आधार पितृ मूलक परिवार था। बड़ी इकाईयों के नाम ग्राम, विश और जन थे। समाज की दूसरी इकाई ग्राम थी। यह कुछ घरों का समूह होता था। ग्राम के बाद विश अर्थात् जिला और कई विश मिलकर जन का निर्माण करते थे।
राजा का पद वंशानुगत था। प्रचलित शासन का रूप राजतंत्र था। राजा का पहला काम जन और जनपद की रक्षा करना होता था। राजा के ऊपर जनता का अंकुश रहता था। राजकीय कार्यों में राजा की सहायता करने के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे। इनमें सेनापति और पुरोहित विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रथम के कार्य सैनिक तथा शांति व्यवस्था बनाये रखना तथा द्वितीय के कार्य राजनीतिक और धार्मिक होते थे। ऋग्वेद के पुरोहित से ही कालान्तर में राजमंत्री के पद का विकास हुआ है।
राज्याभिषेक के अवसर पर ग्रामणी, रथकार, कर्मादि आदि उपस्थित रहते थे। इन्हं रत्निन कहा गया है। इनमें ग्रामीणी गाँव का मुखिया होता था। अन्य पदाधिकारियों में पुरप तथा दूत उल्लेखनीय हैं। इनमें पुरप दुर्गपति होते थे। दूत के कार्य राजनीतिक थे। समय-समय पर सन्धि विग्रह के प्रस्तावों को लेकर ये अन्य राज्यों में जाते थे। वेतन मुद्राओं अथवा भूमि के रूप में वितरित नहीं होता था। वह देय था सोने, चाँदी, अन्न तथा पशु धन के रूप में। जन की कार्यवाही लोगों की सभा में जिसे समिति कहते थे, होती थी जिसमें राजा और प्रजा समान रूप से उपस्थित होते थे।
अथर्ववेद में सभा और समिति दोनों को, दो पृथक संस्थाओं के रूप में घोषित किया गया है।
ऋग्वैदिक समाज
ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार था। परिवार पितृसत्तात्मक होता था। परिवार का वृद्धतम् पुरुष कलप कहलाया था। संयुक्त परिवार की प्रथा थी। सम्पूर्ण आर्य अनेक जनों में विभक्त थे। परिवार में एक पत्नी विवाह ही सामान्यत: प्रचलित थे। यद्यपि कुलीन वर्ग के लोग कई पत्नियाँ रखते थे। बाल विवाह की प्रथा नहीं थी। भाई -बहन और पिता-पुत्री का विवाह वर्जित था। अन्तर्जातीय विवाह होते थे। आर्य लोगों का विवाह, दास तथा दस्युओं के साथ निषिद्ध था। ऋग्वेद में ऐसी कन्याओं का उल्लेख मिलता है, जो दीर्घकाल तक अथवा आजीवन अविवाहित रहती थी। ऐसी कन्याओं को ‘अमाजू’ कहते थे। पुनर्विवाह एवं नियोग प्रथा प्रचलित थी। विधवा विवाह होते थे। विवाह का मुख्य उद्देश्य पुत्र की प्राप्ति करना था। समाज में स्रियों की दशा काफी अच्छी थी, उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता थी,। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में घोषा, लोपामुद्रा आदि स्रियों के नाम मिलते हैं जो पर्याप्त शिक्षित थी। आर्य शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों थे। जौ के सत्तू को दही में मिलाकर ‘करभ‘ नामक खाद्य पदार्थ बनाया जाता था। ऋग्वेद में नमक का उल्लेख नहीं मिलता है।
प्राय: भेड़, बकरी आदि पशुओं का माँस खाया जाता था। घोड़े का मांस संभवत: केवल अश्वमेघ यज्ञ के समारोह में ही खाया जाता था। ‘ओका’ सामान्यतया दूध में पकाये गये अनाज की स्वादिष्ट खीर होती थी। जौ की पलसी (यवागू) का भी उल्लेख है। सोम तथा सुरा आर्यों के मुख्य पेय थे। सोम यज्ञों में पीया जाने वाला पेय था। ऋग्वेद के नवें मण्डल में इसका उल्लेख किया गया हैं। आर्य प्राय: तीन वस्र धारण करते थे।
नीवी– जो नीचे पहना जाता था।
वास– जो शरीर पर धारण किया जाने वाला प्रमुख वस्त्र था।
अधिवास– जो ऊपर से धारण किया जाता था।
आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मृगचर्म से बनाये जाते थे।
कढ़ाई किया हुआ वस्त्र जिसे ‘पेशसू’ कहा जाता था, सामान्यत: नर्तकियाँ पहनती थी।
एक रेशमी अंत: वस्त्र तप्र्य का भी प्रयोग किया जाता था। स्त्री-पुरुष दोनों ही पगड़ी धारण करते थे। कानों में कर्णफूल, गलें में निष्क, हाथों में कड़े आदि पहने जाते थें।
”र्कूम’ एक प्रकार का सिर का आभूषण था जिसे केवल स्त्रियाँ धारण करती थी।
कपड़े बुनने की कला विकसित हो चुकी थी। ऋग्वेद में नाई को ‘वप्ता’ कहा गया है।
तीन ऋण थे–
1 ऋषि प्राचीन ज्ञान, विज्ञान व साहित्य के प्रति कर्तव्य
2 पितृऋण पूर्वजों के प्रति कर्तव्य
3 देव ऋण देवताओं व भौतिक शक्तियों के प्रति दायित्व
भतीजे, प्रपौत्र, चचेरे, भार्इ बहन आदि सभी के लिए ‘नप्तृ’ शब्द का प्रयोग मिलता है। स्त्रियाँ वेणी धारण करती थी। बालों में कंघी और तेल का प्रयोग किया जाता था। कभी-कभी पुरुष नारियों की भाँति सिर के बालों का जूड़ा बनाते थे।
ऋग्वेद में समनों (उत्सवों, समारोहों) का उल्लेख हैं। उनमें कन्याएँ स्वयं अपना पति वरण कर लेती थी। कन्या के विवाह की उम्र कम से कम 16 या 20 वर्ष होती थी। प्रत्येक देश और काल की भाँति, ऋग्वैदिक काल में भी भारतीय आर्य पुत्री की अपेक्षा पुत्र की ही अधिक कामना करता था।
यौवनावस्था में विवाह होने के कारण कन्याओं की शिक्षा दीक्षा के लिए पर्याप्त समय मिल जाता था। ऋग्वेद में अपाला का उल्लेख है जो अपने पिता के कृषि कार्य में साथ देती थी। गृहकार्य के अतिरिक्त कन्याओं को ललित कलाओं की भी शिक्षा दी जाती थी। कन्याओं को वैदिक शिक्षा भी मिलती थी। पुत्र की भाँति पुत्रियों का भी उपनयन संस्कार होता था। इस काल में स्त्रियों को यज्ञ करने का भी अधिकार था।
ऋग्वैदिक काल आर्थिक अवस्था
ऋग्वैदिक काल में पशु अर्थात् गाय ही मुख्य सम्पत्ति थी। गवेषण, गोषू, गव्य, गभ्य आदि सभी शब्द युद्ध के लिए प्रयुक्त होते थे। गायों के अतिरिक्त बकरियाँ, भेड़े एवं घोड़े भी पाले जाते थे। पशुचारण की तुलना मे कृषि का धन्धा नगण्य सा था। ऋग्वेद के 10462 श्लोक में से केवल 24 में ही कृषि का उल्लेख हैं। ऋग्वेद में एक ही अनाज ‘यव’ अर्थात् जौ का उल्लेख है। अतरंजीखेड़ा के तृतीय चरण से एक ही प्रकार के जौ और चावल के अवशेष मिले है। किन्तु चावल उत्तर वैदिक काल का ही हो सकता है क्योंकि ऋग्वेद मेंइसका कोई उल्लेख नहीं है। पशुचारण ही लोगों का प्रधान धंधा था परन्तु इस काल के अंत तक कृषि का आगमन हो चुका था। ऋग्वेद में जन, विश्, गण, व्रात, सार्ध आदि सभी इकाईयाँ कबाइली संगठन की ओर संकेत करती हैं । ऋग्वैदिक लोग पशुओं को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते थे। कोई भी विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग न था। अधिशेष उत्पादन के अभाव में, कबायली समाज में वर्णभेद की परिस्थितियों का उदय न हो सका। ऋग्वेद में दासों की तुलना में दस्युओं को आर्यों का बड़ा शत्रु बताया गया है। व्यापार वाणिज्य प्रधानत: पणि वर्ग के लोग करते थे। धनी लोग जो संभवत: श्रेणियों के प्रमुख होते थे, श्रेष्ठिन कहलाते थे। उधार लिये गये ऋृण के लिए ‘कुसीद’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। ब्याज लेने वाले साहूकार को ‘कुसीदिन‘ कहा जाता था। ऋग्वेद में गाय को मुद्रा के रूप में प्रतिपादित किया गया है। विनिमय के माध्यम के रूप में ‘निष्क’ का भी उल्लेख हुआ हैं। ऋग्वैदिक काल मैं निष्क चित्रपूर्ण और अंकपूर्ण मुद्रा थी परन्तु हिरण्य पिंड चित्रविहीन और अंकविहीन मुद्रा थी। स्थल का व्यापार मुख्यत’: रथों और बैलगाडियों द्वारा होता था। ऋग्वेद में दान के लिए पुरुष दास के स्थान पर नारी दासियों को अधिक स्वीकार किया गया है। उद्योगों में स्त्रियाँ रंगरेजिन (रजयित्री), कढ़ाई करने वाली (पेशस्करी), काँटों का काम करने वाली (कंट-कीकरी), टोकरी बनाने वाली (विदलकारी) के रूप में वर्णित है। पशु चारण की प्रधानता ने पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना के निर्माण में सहायता दी। मवेशी, दास, रथ, घोड़ों आदि के दान के उल्लेख मिलते हैं, लेकिन भूमिदान के उल्लेख नहीं मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, कि भूमि का स्वामित्व व्यक्ति अथवा छोटे परिवारों के पास न होकर सम्पूर्ण कबायली समाज के पास था।
मनोरंजन
संगीत मनोविनोद का मुख्य साधन था। उसके तीन प्रकार थे (i) नृत्य (ii) गान (iii) वाद्य। पुरुष वर्ग के लिए दौड़, आखेट और युद्ध प्रिय मनोविनोद थे। रथ धाबन अत्यधिक लोकप्रिय था। आगे चलकर यह वाजपेय नामक यज्ञ का प्रधान भाग बन गया। वाद्य संगीत में वीणा, दुन्दुभी, शंख और मृदंग का प्रयोग किया जाता था।
अन्य तथ्य
ऋग्वेद में व्याघ्र का उल्लेख नहीं मिलता और हाथी का भी बहुत कम, जबकि सिन्धु निवासी इन दोनों से भली-भाँति परिचित थे। ऋग्वैदिक काल का राजन् एक कबाइली मुखिया से अधिक कुछ भी नहीं था वह एक पुरोहित एवं योद्धा के काम किया करता था। वह किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र का स्थायी शासक न था। ‘सवितृ’ और ‘विवस्वान’ मूलत: सूर्य के विशेषण थे किन्तु बाद में स्वयं सूर्य देवता बना दिये गये। ऋग्वेद के ‘मंडूक सूक्त’ में सोमरस निकालने में जुटे ब्राह्मणों के संगीतपूर्ण मंत्र पाठ का उल्लेख मिलता है। संगीत के अतिरिक्त घुड़ दौड तथा मल्ल युद्ध मनोरंजन के अन्य साधन थे। ऋग्वेद में द्यूत क्रीड़ा का भी वर्णन है। ऋग्वैदिक काल में पुरुष और स्त्रियाँ दोनों नाचते थे। नृत्य बहुधा वीणा, करताल की लय के साथ किया जाता था। सिंह, हाथी, हिरण, सुअर, भैंसों का आखेट किया जाता था।
ऋग्वैदिक कालीन समाज प्रारम्भ में वर्ण विभेद से रहित था। प्रारम्भ मेंहम तीन वर्णों का उल्लेख पाते हैं- ब्रह्म, क्षत्र तथा विश्। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में सर्वप्रथम शूद्र शब्द का उल्लेख मिलता है। व्यवसाय आनुवांशिक नहीं थे। नगर स्थापना ऋग्वैदिक काल की विशेषता नहीं है। उसका प्रादुर्भाव ब्राह्मण काल में होता है। ऋग्वेद में फाल का उल्लेख मिलता है जो सम्भवत: लकड़ी का बना होता था। सिंचाई प्राय: नहरों द्वारा होती थी। लोग खाद के प्रयोग से परिचित थे। मुख्यत: गायें विनिमय और व्यापार का माध्यम थीं। गाय को देवता के रूप में कल्पित किया गया हैं, इसके लिए ‘अवन्ध्या’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
ऋग्वैदिक काल के मुख्य पशु हाथी, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, ऊँट, सुअर, हिरन आदि थे। प्रत्येक आर्य व्यक्तिगत रूप से देवोपासना एवं यज्ञ करता था। ‘विश‘ शब्द का प्रयोग मिलता है परन्तु इसका साधारण अर्थ जन समुदाय है। युद्ध में पराजित एवं अधिकृत अनार्य दास अथवा शूद्र कहलायें। ऋग्वेद में हम केवल वर्ण व्यवस्था को बीज रूप में आरोपित पाते हैं। ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था का जो ‘ईषत्’ रूप मिलता है वह कर्म पर आधारित था जन्म पर नहीं। गाय को ‘अष्टकर्णी’ कहा गया है। ओसाई करने वाले को ‘धन्यीकृत’ कहा जाता था। अनाज को एक बर्तन द्वारा नापा जाता था जिसे ऊर्दर कहा जाता था। ऋग्वेद में ‘समुद्र’ शब्द का अनेक बार उल्लेख हुआ है। चमड़े का काम करने वाले वमन्र्न कहलाते थे। ‘भिषज‘ चिकित्सक अथवा वैद्य था। ऋग्वैदिक आर्य सूत कातना और कपड़ा बुनना जाते थे। ऋग्वेद में ‘वाय’ शब्द का प्रयोग जुलाहे के अर्थ में हुआ है। ‘तसर’ शब्द का अर्थ करघे के रूप में हैं।
ऋग्वेद में प्रयुक्त ‘सीरी’ शब्द का अर्थ कदाचित् बुनाई का काम करने वाली नारी है। ऋग्वेद में कपास शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। ऊन का प्रयोग इस काल में अवश्य होता था। सीसे का प्रयोग जुलाहें लोग वजन के रूप में करते थे।
ऋग्वेद में ‘क्षेत्रपति’ और ‘उर्वरापति’ शब्द भी खेतों के व्यक्तिगत स्वामियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। राजा अपनी प्रजा से कर के रूप में मात्र उपज का कुछ भाग ही ले सकता था। भारत वर्ष में प्रवेश से करने पूर्व ही, आर्य खेती करा सीख गये थे। ऋग्वैदिक काल में खेती हल और बैल की सहायता से होती थी। पके हुए अनाज को काटने के लिए हँसिया (दराति) का प्रयोग होता था। कटा हुआ अनाज अलग अलग गट्ठरों में बाँधकर संग्राहलयों में एकत्र किया जाता था। साधारणतया कृषक वर्षा जल पर ही निर्भर रहते थे। ऋग्वेद में उल्लिखित धातुओं में प्रमुख है ‘अयस्‘। आर्य धातु गलाने और उसे पीटकर विभिन्न आकार में ढालने में निपुण थे। सोने का उल्लेख ऋग्वेद में अनेक बार हुआ है। भारत वर्ष में आने के पूर्व ही आर्य इस धातु से परिचित थे। अथर्ववेद में निश्चित रूप से चाँदी का प्रयोग मिलता है। आधुनिक बढ़ई के लिए ‘तक्षण’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में कहीं पर कोई ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि अमुक व्यवसाय अमुक वर्ग के लिए ही निर्धारित था। उस वर्ग को छोड कर अन्य कोई भी वर्ग उस व्यवसाय का अनुसरण नहीं कर सकता था। ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा स्थापित हो चुकी थी।
आर्यों ने सर्वप्रथम द्यौ (आकाश) और पृथ्वी की उपासना की। ऋग्वेद में सिन्धु नदी का भी देवी के रूप में उल्लेख है। ऋग्वेद में वरूण को सृष्टिकर्ता कहा गया है।
धार्मिक जीवन
वरूण– आकाश जल, समुद्र।
विष्णु– संसार का संरक्षक।
इन्द्र – आँधी, तूफान, बिजली और वर्षा।
उषा– यह प्रकृति की एक अन्य शक्ति का दैवीकरण था।
अदिति– आर्यों की सार्वभौम भावना की देवी है। ये दोनो देवियाँ प्रभात समय
के प्रतिरूप है।
मरुत– आंधी के देवता।
सोम– वनस्पतियों का अधिपति।
सोम आर्यों का सर्वोत्तम पेय था। सोम को सूर्य और विद्युत से उत्पन्न बताया गया है। कहीं-कहीं पर सोम को चन्द्रमा भी माना गया है। ऋग्वेद में इन्द्र को सर्वाधिक शक्तिशाली देवता माना जाता था। इन्द्र की स्तुति में ऋग्वेद में लगभग 250 ऋचायें हैं। वह आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी से भी बड़ा है। अदिति का शाब्दिक अर्थ है निस्सीम। ऋग्वैदिक आर्यों ने सर्वव्यापी अदिति को मातृ-पिता, पंचजन, देवता आकाश सभी कुछ माना है। ऋग्वेद में इन्द्र को पुरन्दर अर्थात् किले को तोड़ने वाला कहा जाता है। वरूण जो जल या समुद्र का देवता है, उसे ऋत् अर्थात् प्राकृतिक संतुलन का रक्षक कहा गया है। ऋग्वेद में आर्यों का धार्मिक और दार्शनिक विकास तत्त्व निरूपण के रूप में दिखाई पड़ता है। उन्होंने एकेश्वरवाद की प्रतिष्ठा की और साथ में एक नये तत्त्व की भी। इस एक तत्त्व को उन्होंने ‘सत्‘ के नाम से पुकारा।
ऋग्वैदिक आर्य नितान्त प्रवृत्ति मार्गी थे। उसके जीवन में सन्यास और गृहत्याग का स्थान न था। वह गृहस्थ आश्रम में ही, देवोपासना के द्वारा कल्याण की चेष्टा करता था। ऋग्वेद में मन्दिर अथवा मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं है। स्तुति और भजन ही उनकी देव पूजा थी। प्रारम्भिक स्थिति में देवता और मनुष्य का सम्बन्ध पारस्परिक आदान प्रदान पर अवलम्बित था। ऋग्वेद अमरता का उल्लेख करता हैं, परन्तु मोक्ष का नहीं। यज्ञ के लिए विभिन्न श्रेणियों के पुरोहित थे। इनमें होता (होतृ) जो मंत्र पाठ करता था, ‘अध्वर्यु‘ जो पूजा से सम्बन्धित हाथ के काम करता था। ‘उद्गात्ततृ‘ जो सामवेद का गान करता था। ऋग्वेद का एक मंत्र हैं जिसमें देवी सावित्री की स्तुति है व हिन्दू धर्म ग्रन्थों में जिसे सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। जब आर्य लोग सबसे पहले भारत में आये, तो वे तीन सामाजिक वर्गों में विभाजित थे- योद्धा अथवा कुलीन वर्ग, पुरोहित एवं सर्वसाधारण। जंगली पशुओं में व्याघ्र से पहले सिंह के बारे में लोगों को जानकारी हुयी ।
ऋग्वेद की प्रारम्भिक अवस्था में समाज में दो वर्ण थे। इस ग्रन्थ मै उल्लेख है कि उग्र प्रकृति के ऋषि (अगस्त्य) ने दोनों वर्णों का पोषण किया।ब्राह्मणों का मुख्य कर्म अध्ययन, अध्यापन, भजन आदि था। क्षत्रिय मुख्य रूप से युद्ध और राजकीय कार्यों में संलग्न था। यह दोनों वर्ग जन्मजात न होकर योग्यता या कर्म पर आधारित था। ऋग्वैदिक काल में पशुपालन वैश्य समुदाय का प्रमुख कार्य समझाा जाता था। वैश्य शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के एक मात्र पुरुष सूक्त में ही हुआ है। शेष ग्रन्थों में ‘विश’ शब्द ही मिलता है। विश का सामान्य अर्थ समूह होता है। ऋग्वेद में अनार्यों को कृष्ण वर्ण कहा गया है। बौधायन और आपस्तम्ब के धर्मसूत्रों में शूद्र को भी कृष्ण वर्ण कहा गया है। गौतम ने शूद्र को अनार्य कहा है। आर्यों ने अपने धार्मिक विकास के प्रथम चरण में, दो प्रमुख देवताओं की प्रतिष्ठा की और इस देवी नारी पुरुष के युग्म से ही सम्पूर्ण विश्व कीसृष्टि की कल्पना की। शीघ्र ही सूर्य भी उनका देवता बन गया। ऋग्वेद में सविता को देवताओं का चक्षु कहा गया है।
ऋग्वेद में सविता को पाप मोचन देवता के रूप में भी प्रतिष्ठित किया था। दैवी उत्पत्ति के साथ-साथ ऋग्वेद में अग्रि की भौतिक उत्पत्ति का भी उल्लेख है। ऋग्वैदिक यज्ञों में अग्रि का विशेष महत्त्व था। ऋग्वैदिक आर्यों ने वन देवी को भी प्रतिष्ठित किया और उसका नाम अरण्यानी रखा। इन्द्र ऋग्वेद का प्रमुख देवता है। द्यौस इसका पिता, अग्रि इसका भाईऔर मरूत इसका सहभागी है। आप सोम की बहनें अथवा मातायें हैं। ऋग्वेद में प्रभुता प्राप्ति के लिए वरुण और इन्द्र की पारस्परिक होड़ के उल्लेख मिलते हैं। ऋग्वेद में कहीं पर भी यज्ञ में मनुष्य बलि का उल्लेख नहीं हैं। ऋग्वेद में देवपूजा के साथ-साथ पितृ पूजा की भी स्थापना की गई। ऋग्वेद में वाह्य यज्ञों और स्तुतियों के साथ-साथ मनुष्य की अंत: शुचि और उसके अन्य सद्गुणों पर भी जोर दिया था।