कितनी बार टैक्स दूं और कहां-कहां, क्या कोई जवाब देगा? ….अतुल विनोद 


स्टोरी हाइलाइट्स

सोशल मीडिया पर वायरल हुई एक पोस्ट ने मेरा ध्यान खींचा|  इस पोस्ट में एक नौकरी पेशा पूछ रहा है कि एक तनख्वाह से कितनी बार टैक्स दूं और क्यों?  वाकई एक आम आदमी टैक्स की मार से परेशान हो गया है|  आमदनी के घटते आय के स्रोत और टेक्स्ट का बढ़ता दायरा उसे चक्रव्यूह की तरह घेर रहा है| क्रेडिट कार्ड, लोन के ब्याज भी उसकी कमर तोड़ रहे हैं|  उसकी जेब काटने को हर कोई तैयार है|  कभी पैसा बैंक से डिडक्ट हो जाता है, तो कभी किसी अन्य ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर|  सैलरी आती नहीं है कि उससे ज्यादा खर्च खड़े हो जाते हैं|  एक व्यक्ति 30 दिन काम करता है|  काम करने के  बाद उसे छोटी सी सैलरी मिलती है|  उसकी जितनी आमदनी होती है उसमें से उसे टैक्स के रूप में फिक्स अमाउंट देना पड़ता है|  चलिए मैंने एक बार टैक्स दे दिया| मुझे टैक्स की जिम्मेदारी  से मुक्त हो जाना चाहिए था|  लेकिन ऐसा नहीं होता| मोबाइल का बिल आता है तो उसमें टैक्स|  किराने का सामान आता है तो उसमें भारी टैक्स|  पेट्रोल, डीजल  पर टेक्स|  मोबाइल खरीदा तब टैक्स दिया, उसे रिचार्ज किया तब टैक्स दिया, डाटा लिया तब टैक्स दिया, बिजली ली तब टैक्स दिया| एक आम आदमी कहां-कहां टैक्स नहीं देता?  वो खाना खाता है तो होटल वाला टैक्स के साथ भारी-भरकम बिल थमा देता है|  रोड पर चलना भी आजकल मुफ्त नहीं है| जगह-जगह टोल नाके लगे हुए हैं टैक्स वसूलने के लिए| पहले इधर उधर से निकल जाया करता था| लेकिन  पगडंडियों को ब्लॉक कर दिया जाता है| मजबूरी में उसे टोल टैक्स देना ही पड़ता है| भले ही उसे आगे 1 किलोमीटर की यात्रा ही करनी हो | रास्ते में जगह-जगह पुलिस वाले खड़े हुए हैं, हेलमेट नहीं पहना तो टैक्स दो|  सीट बेल्ट नहीं लगाया तो टैक्स दो|  दोनों लगाए हैं, मास्क नहीं लगाने का टेक्स्ट दो|  यह भी लगाया है तो फिर प्रदूषण के सर्टिफिकेट ना होने का टैक्स दो|  यह भी ठीक हैं तो कोई और कमी निकाल ली जाएगी|  शहर में 1 मिनट के लिए भी कहीं गाड़ी खड़ी करेंगे, तुरंत एक बंदा आपके पास आएगा और पैसे मांगने लगेगा| आखिर आम नागरिक की सेविंग कहां है?  व्यक्ति कैसे बचत करे? जैसे-जैसे समाज में सुविधाएं बढ़ती चली जा रही है खर्च बढ़ते चले जा रहे हैं|   नगर निगम की प्रॉपर्टी के नाम पर आपको टैक्स देना है|   नगर निगम को प्रॉपर्टी टैक्स दे रहे हैं फिर भी आपको डेवलपमेंट अथॉरिटी या हाउसिंग बोर्ड जैसी संस्थाओं को अलग टैक्स देना है| सोसाइटी मेंटेनेंस के नाम से अलग टैक्स वसूलती है|   टैक्स के ऊपर भी टैक्स है पेनेल्टीज है, सरचार्ज हैं|  ऐसी पोस्ट जो आम नागरिक के टेक्स से जुड़ी हुई है क्यों वायरल होती है?  क्योंकि ये आम नागरिक की व्यथा है|  और जब भी कोई व्यक्ति आम नागरिक की व्यथा को लिखकर व्हाट्सएप पर फेसबुक  पर कोई पोस्ट कर देता है तो वह वायरल हो जाती है|  इस पोस्ट ने और भी सवाल खड़े किए|  इसमें आम नागरिक पूछता है कि मैंने हर जगह टैक्स दिया|  मैंने जुर्माना भी भरा|  मैंने पेनल्टी भी दी|  इसके बावजूद भी मेरे ऊपर कितने सारे बोझ लादे जा रहे हैं|  स्कूल अपनी फीस बढ़ाते जा रहे हैं|   सरकारें सारी व्यवस्थाओं को इस हद तक चाक-चौबंद कर चुकी है कि कहीं से भी मेरा बचकर निकलना मुमकिन नहीं है| यदि मैंने कर्ज ले लिया और एक दो महीने मैंने किश्ते नहीं चुकाई तो बैंक इतनी मजबूत है कि 2 महीने में ही मुझे इतना सता देती हैं, मेरा जीना  दूभर हो जाता है|  काम करते-करते आम नागरिक थक जाता है|  सारी कमाई टैक्स में लुटाता जाता है|  फिर भी क्या उसे उसके बदले में  परफेक्ट बुनियादी सुविधाओं की गारंटी मिलती है? वह टैक्स चुकाने के लिए मजबूर है लेकिन क्या सरकार उसकी बात सुनने को बाध्य है?  यदि उसकी कोई समस्या है तो अधिकारी सुनते नहीं हैं|  सरकारों ने हेल्पलाइन जैसे प्लेटफार्म खड़े कर दिए लेकिन शिकायतें एक स्तर से दूसरे स्तर दूसरे स्तर से तीसरे स्तर तक घूमती रहती हैं, और अंत में समस्या हल किए बगैर यह कहकर क्लोज कर दी जाती है कि समाधान हो चुका है|  भोजन पर वह तमाम तरह के टैक्स देता है लेकिन बदले में उसे किस तरह का भोजन मिलता है गेहूं फल सब्जी पानी हर जगह टॉक्सिंस, रसायन! कॉलोनी में किस तरह की व्यवस्थायें हैं? उसे मिलती है बदहाल पार्क, बदहाल सड़कें, चोक सीवेज सिस्टम |  हर जगह उसके साथ लूट है लेकिन लूटने वाले मस्त हैं|  आम आदमी लुटता जाता है और उसके टैक्स के पैसे करप्शन में, इलेक्शन में, सरकारी मशीनरी की भारी-भरकम व्यवस्थाओं में  बहता चला जाता है| ना तो उसे शुद्ध हवा मिलती नहीं साफ पानी|   तस्वीर का दूसरा पहलू भी है,  इंसान को पहले से ज्यादा सुविधाएं मिल रही हैं| लेकिन इंसान को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है|  आज देश की एक बड़ी आबादी दिन रात काम में लगी हुई है|  आधी आबादी महिलाओं की है लेकिन उनमें से भी ज्यादातर अपने घरेलू काम के साथ-साथ प्रोफेशनल काम में जुटी हुई है|  इतना काम इसलिए क्योंकि वह अपना घर चला सकें| अपना घर चलाने में, सुख सुविधाएं इकट्ठे करने में, उन्हें टैक्स देना पड़ता है और वही टैक्स डेवलपमेंट के लिए उपयोग में आता है| लेकिन डेवलपमेंट के नाम पर किस तरह से भ्रष्टाचार होता है? बाबू,अधिकारियों, ठेकेदारों में हिस्सा-बाँट हो जाती है| आधा से ज्यादा पैसा तो बेईमानी और भ्रष्टाचार में चला जाता है| यही वजह है कि भारत में इतनी बड़ी आबादी के काम में लगे होने के बावजूद भी, इनसे हर स्तर पर टैक्स वसूली के बाद भी, डेवलपमेंट उम्मीदों ले मुताबिक़ नहीं हुआ|  आज भी हम किसी प्रदेश के बड़े से बड़े शहर में चले जाएं, गंदगी, बदहाल सड़कें, कॉलोनियों की अवस्थाएं, सड़कों पर बहता हुआ सीवेज देख सकते हैं| आम नागरिकों की इन समस्याओं को लिस्ट कर नए-नए दल खड़े हो जाते हैं|  बड़े-बड़े आंदोलन खड़े कर के नए नए नेता तैयार हो जाते हैं|   सवाल यह है कि सत्ता में आने के बाद आम जनता की सोचता कौन है?  सिर्फ वोट देकर, सरकारें बदलकर, व्यवस्थाएं नहीं बदल सकती|  आम नागरिक हर वक्त जागरूक रहें|   अपने हकों के लिए 5 साल में एक बार वोट की लड़ाई लड़कर बैठ ना जाए|   अपने लिए भ्रष्टाचार ठीक और दूसरे के लिए गलत की नीति से बाज़ आए तो शायद उसके हालात ठीक हो सकें| अतुल विनोद