इतने भगवान् क्यों: सगुण निर्गुण क्या है -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

कभी-कभी किसी भाषा में लिखी गयी बात का जब दूसरी भाषा में अनुवाद होता है, तो बहुत बड़ी गलतियाँ हो जाती हैं. कुछ समय पहले प्रसिद्द लेखक प्रतीश नंदी....

इतने भगवान् क्यों : सगुण निर्गुण क्या है -दिनेश मालवीय कभी-कभी किसी भाषा में लिखी गयी बात का जब दूसरी भाषा में अनुवाद होता है, तो बहुत बड़ी गलतियाँ हो जाती हैं. कुछ समय पहले प्रसिद्द लेखक प्रतीश नंदी का एक लेख किसी हिन्दी अखबार में छपा था. उसमें एक जगह लिखा था कि सनातन धर्म में अनेक ‘ईश्वरों’ की पूजा की जाती है. मैं फ़ौरन समझ गया कि अनुवादक सनातन धर्म की समझ की कमी के कारण gods का अनुवाद ईश्वर कर गया. प्रतीश नंदी दरअसल कह रहे थे कि सनातन धर्म में अनेक देवताओं या भगवानों की पूजा होती है. ये ईश्वर नहीं हैं. सनातन धर्म में ईश्वर या ब्रह्म की जो अवधारणा है, वह तो यही है कि उसका कोई रूप नहीं है. वह बिना पांव के चलता है, बिना हाथ के काम करता है, बिना मुँह के खाता-पीता है, बिना वाणी के बोलता है, बिना कान के सुनता है आदि. यानी वह निराकार है. बहरहाल, सनातन धर्म में ईश्वर के अवतार को मान्य किया गया है. आमतौर पर यह समझा जाता है कि ईश्वर अवतार लेते हैं. वास्तव में किसी विशेष शरीर में उनका कुछ अंश आ जाता है. अवतारों का शरीर भी सामान्य मानव शरीर के सभी विकारों से रहित होता है. उनका शरीर चिन्मय स्वरूप होता है. उनके मनुष्य की तरह जन्म लेने की बात सिर्फ बोलचाल की है. वह अवतरित होते हैं. हम इन्हें ईश्वर का प्रतीक मानकर ही पूजते हैं. मंदिर में उनकी प्रतीष्ठा कर उनका विधिवत पूजा-अर्चन करते हैं. मेरे एक बुद्धिजीवी मित्र ने प्रश्न किया कि मूर्तियों की पूजा क्यों की जाती है. मैंने बताया कि मूर्ति-पूजा जैसी कोई चीज़ नहीं होती. अध्यात्म की चरम ऊंचाइयों को छूने वाले और उपनिषदों जैसे महान ग्रंथों की रचना करने वाले देश के लोग क्या इतने मूर्ख हैं कि किसी पत्थर या धातु के टुकड़े की पूजा करेंगे?  उसे मंदिर में स्थापित कर उसकी आरती करेंगे? यह वास्तव में प्रतीक-पूजा होती है. किसी पत्थर या धातु की प्रतिमा बनाकर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है. वह बोला कि प्राण प्रतिष्ठा क्या होती है? मैंने बताया कि मंत्रों के माध्यम से प्रतिमा को चेतन किया जाता है. अर्थात उसमें यह भाव प्रतिष्ठित किया जाता है कि परमपिता परमेश्वर की चेतना का इसमें प्रवेश हो गया है. प्रतिमा के माध्यम से उसी चेतना की पूजा की जाती है. इस अनुष्ठान के बिना किसी प्रतिमा की पूजा नहीं होती. इससे पहले वह सिर्फ पत्थर या धातु का टुकड़ा होती है. वह कहने लगा कि इस प्रतीक की आवश्यकता क्यों पड़ती है? मैंने बताया कि भारत के लोगों को युगों-युगों से यह पता है कि ईश्वर निराकार है. वह चेतना के रूप में सर्वत्र विद्यमान है. लेकिन हमारे ऋषि-मुनियों को यह भी पता था कि बिना किसी माध्यम या आधार के उस निराकार चेतना से सीधा सम्पर्क मुश्किल है. इसी चेतना को ब्रह्म या ईश्वर कहा गया है. इसलिए व्यक्ति को प्रारम्भिक अवस्था में प्रतीकों के माध्यम से साधना करने की युक्ति दी गयी. यह युक्ति बहुत सफल है. बड़ी संख्या में लोगों ने प्रतीक उपासना करते-करते ईश्वर के परम स्वरूप को जाना. इस युग में ही श्रीरामकृष्ण परमहंस, चैतन्य महाप्रभु, मीराबाई, संत तुलसीदास, सूरदास आदि अनेक उदाहरण हैं. वास्तव में सगुण और निर्गुण एक ही है. मनुष्य दो तरह से ईश्वर की साधना करता है. या तो वह उसके स्तर तक ऊपर उठने की कोशिश करता है या फिर उसे अपने स्तर पर लाकर उसकी उपासना करता है. उसे ऐसा ईश्वर चाहिए जिसकी वह पूजा कर सके, उसे भोग लगा सके, उसके साथ अपने सुख-दुःख बाँट सके, जो उसके घर का स्वामी हो. इस सम्बन्ध में महाकवि सूरदास के “भ्रमर गीत सार” में गोपियों और उद्धव के माध्यम से बहुत सुन्दर और सार्थक चर्चा कि गयी है. मित्र बोला कि जो लोग मूर्ति पूजा नहीं करते, क्या उनका ईश्वर से सम्पर्क नहीं होता? मैंने कहा कि होता है, लेकिन इसमें कठिनाई बहुत होती है. हर व्यक्ति में इतनी समझ और बुद्धि नहीं होती कि वह सीधे उस परम चेतना से संयुक्त हो सके. मैंने उससे कहा कि कभी मंदिर में भगवान की मूर्ति के सामने खड़े किसी भक्त को देखना. वह कुछ क्षण ही मूर्ति के दर्शन करके आँख बंद कर लेता है. यानी उसे अपने ह्रदय में ही देखने लगता है. मूर्ति सिर्फ माध्यम का काम करती है. मित्र ने पूछा कि फिर लोग मूर्ति पूजा का इतना विरोध क्यों करते हैं? मैंने कहा कि इसका विरोध वे लोग करते हैं, जिन्हें इस साधना के पीछे का विज्ञान या रहस्य नहीं मालूम. विरोध करने के और भी कारण हैं. कुछ लोगों का मानना है मूर्ति या प्रतीक-पूजा से व्यक्ति उसमें ही अटका रह जाता है और आगे नहीं देख पाता. कुछ लोग इसलिए विरोध करते हैं कि उनके धर्म या साधना पद्धति में इसका स्थान नहीं होता. हिन्दुओं में ही अनेक ऐसे पंथ हैं, जिनके अनुयायी मूर्तिपूजा नहीं करते. इनमें आर्यसमाजी, राधास्वामी, निरंकारी सहित अनेक पंथ शामिल हैं. वे सभी बिना प्रतीक के अपने-अपने ढंग से ईश्वर की उपासना करते हैं. सनातन धर्म में कोई एक साधना-पद्यति निर्धारित नहीं है. अपने स्वभाव के अनुसार व्यक्ति को उपासना का तरीका चुनने की स्वतंत्रता दी गयी है. मित्र ने उदाहरण देने को कहा. मैंने कहा कि जब में छोटा था तब मेरी माताजी घर में एक छोटे से सिंहासन विराजित भगवान की मूर्ति की सुबह-शाम पूजा-आरती करती थीं. भोजन बनाने के बाद सबसे पहले भगवान को अर्पित किया जाता था. वह मूर्ति को स्नान करती थीं. उन्हें चन्दन लगाती हैं. रोज़ उनके वस्त्र बदलती थीं. दोपहर और रात में उन्हें शयन कराती थीं. बड़े त्योहारों पर उनके लिए स्वयं अपने हाथों से सुंदर वस्त्र सिलती थीं, जिसे गोटे की किनारी से सजाया जाता था. उनके लिए मुकुट बनाती थीं. घर का स्वामी उन्हें ही माना जाता था. शाम की आरती के बाद बहुत सुंदर पारंपरिक स्तुतियाँ इतने भाव से गाती थीं कि उनका रोम-रोम पुलकित हो जाता था. आँखों में आनंद के अश्रु आ जाते थे. इसमें पूरा परिवार शामिल होता था. लेकिन मृत्यु के कुछ वर्ष पहले, इस पूजा-पद्धति में उनकी रुचि कम होती गयी. वह सुबह जल्दी उठकर और शाम को एक कोने में आज्ञाचक्र पर चेतना को केन्द्रित कर ध्यान करने लगीं. मैंने एक बार उनसे इसका कारण पूछा, तो उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया. बस बहुत रहस्यमय ढंग से केवल मुस्कुरा दीं. भगवान की सेवा-पूजा का दायित्व उन्होंने मेरी पत्नी को सौंप दिया. आजकल पत्नी उस दायित्व को निभा रही है. बहरहाल, एक बहुत महत्वपूर्ण बात ध्यान देने की यह है कि उन्होंने कभी भगवान की मूर्ति की अवहेलना नहीं की और न साकार पूजा के बारे में कोई विपरीत बात कही. एक बार उन्होंने बताया कि किसी भी रूप में की जाने वाली साधना, ईश्वर की ही उपासना है. चित्त की अवस्था के अनुरूप इसमें क्रमिक विकास होता जाता है. एक समय ऐसा आता है कि भक्त को संसार का हर रूप भगवान का ही रूप दिखने लगता है. ऐसे में उसके लिए भगवान का को अलग रूप नहीं रह जाता. वास्तविकता यह है कि कोई सगुण उपासना करे या निर्गुण उपासना, वह परमपिता ईश्वर की ही उपासना करता है. हर प्रणाम उसी तक पहुँचते हैं. दोनों तरह की उपासना का फल एक ही होता है. यदि आप अपनी साधना में ईमानदार हैं और आपकी निष्ठा सच्ची है, तो आप किसी भी उपासना पद्यति से परम चेतना रुपी ईश्वर के तात्विक स्वरूप से जुड़ सकते हैं. यदि आप ईमानदार नहीं हैं तो कोई भी साधना आपको कहीं नहीं ले जाने वाली. जब तक आप आपको दूसरों की साधना-उपासना पद्यति में दोष दिखाई देते हैं, तब तक यही माना जाएगा कि आप अपनी साधना पद्यति को ही नहीं समझ पाए हैं. अपने धर्म या साधना-पद्यति को ठीक से समझने वाला व्यक्ति दूसरे की पद्यति की आलोचना कर ही नहीं सकता. आप किसी भी मार्ग पर चलते हों, लेकिन दूसरों के मन में उनके मार्ग के प्रति अनास्था पैदा नहीं करें. आपको जो करना है आप करें और दूसरों को जो अच्छा लगता है, उन्हें वह करने दें, यही वास्तविक अध्यात्म है. फिर मित्रसने पूछा कि इतने देवी-देवता क्यों हैं? मैंने बताया कि भारत में हर एक गुण को एक साकार रूप देकर उसे किसी देवी-देवता के रूप में पूजा जाता है. ये सभी ईश्वर के किसी गुण या भाव का प्रतिनिधित्व करते हैं. भक्त ईश्वर के जिस भाव की उपासना करता है, उसके वह भाव प्रधान हो जाता है.. इसके उलट, जिसमें जिस भाव की अधिकता होती है, वह उसके अनुसार किसी देवी-देवता को अपना आराध्य मानता है. इनकी पूजा भी उसी एक ईश्वर की पूजा होती है. मित्र को संतोष हुआ और उसके संतोष पर मुझे भी संतोष हुआ.