जानिए हिंदू महासभा, वीर सावरकर और महात्मा गाँधी में क्या था संबंध: हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य PART 27


स्टोरी हाइलाइट्स

जानिए हिंदू महासभा, वीर सावरकर और महात्मा गाँधी में क्या था संबंध: हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य PART 27

हिंदुत्व और महात्मा गाँधीजी का रामराज्य PART 27
जानिए हिंदू महासभा, वीर सावरकर और महात्मा गाँधी में क्या था संबंध
 मनोज जोशी         (गतांक से आगे)
हिंदुत्व और महात्मा गाँधी पर चर्चा हो, संघ का नाम आए लेकिन हिंदू महासभा और वीर सावरकर का नाम न आए तो बात अधूरी सी रह जाएगी। हाँ, वही सावरकर जिन्हें न केवल गाँधीजी के विरोधी के रूप में प्रचारित किया जाता है, बल्कि जिनका नाम गाँधी हत्या में भी घसिटा गया। चिंता ना करें। इसी श्रृंखला में आगे नाथूराम गोड़से पर भी बात करेंगे। शुरुआत हिंदू महासभा की स्थापना से करते हैं।

कहा जाता है कि सावरकर ही वह शख्स थे जिन्होंने सबसे पहले हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचार के रूप में सामने रखा। वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी रहे। जबकि तथ्य यह है कि सावरकर हिंदू महासभा के संस्थापक नहीं थे, यानी हिंदुत्व के विचार पर राजनीतिक दल सावरकर ने नहीं बनाया बल्कि सावरकर उसमें शामिल हुए और अध्यक्ष बने।

विनायक दामोदर सावरकर और महात्मा गांधी

आगे बढ़ने से पहले जरा हिंदू महासभा के बारे में एक महत्वपूर्ण चौंकाने वाली बात जान लीजिए। १९०९, १९१८, १९३२ और १९३३ में यानी चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे महामना मदनमोहन मालवीय हिंदू महासभा के संस्थापक थे। १९१५ में प्रयाग में महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हिंदू महासभा की स्थापना हुई। १९१५ में हरिद्वार में हुए अधिवेशन में राजा मणीन्द्र चंद्र नाथ इसके अध्यक्ष चुने गए और अगले साल १९१६ में हरिद्वार में ही हुए दूसरे अधिवेशन में महामना मालवीय अध्यक्ष चुने गए। हिंदू महासभा के साथ महामना कांग्रेस में भी सक्रिय थे। तभी तो वे १९१८,१९३२और १९३३ में भी कांग्रेस अध्यक्ष रहे। १९१६ में अंबिका चरण मजूमदार की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन हुआ। यहां कांग्रेस ने मुस्लिम लीग से समझौता किया नतीजा सभी प्रांतों में मुसलमानों को विशेष अधिकार और संरक्षण प्राप्त हुए। इसके बाद हिंदू महासभा ने १९१७ में हरिद्वार में अपना अधिवेशन करके कांग्रेस- मुस्लिम लीग समझौते और चेम्सफोर्ड योजना का पूरजोर विरोध किया। हिंदू महासभा ने कांग्रेस के साथ रोलट एक्ट का विरोध किया। साइमन कमीशन का भी हिंदू महासभा ने कांग्रेस के साथ विरोध किया।
लाहौर में हिंदू महासभा के अध्यक्ष लाला लाजपत राय स्वयंसेवकों के साथ साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए इकट्ठा हुए। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसमें उनकी मृत्यु हो गई। सोचिए, जिस लाहौर में हिंदू महासभा सक्रिय थी वही लाहौर अब पाकिस्तान में है। अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए रोलट एक्ट बनाकर पुलिस और फौजी अदालतों को व्यापक अधिकार दे दिए। कांग्रेस के साथ हिंदू महासभा ने भी इसके विरुद्ध आंदोलन चलाया। उसी समय तुर्की के खलीफा को अंग्रेजों द्वारा हटाए जाने के विरुद्ध तुर्की के खिलाफत आंदोलन के समर्थन में भारत में भी खिलाफत आंदोलन चलाया और गाँधीजी ने इसका समर्थन किया। स्वाभाविक रूप से हिंदू महासभा इससे नाराज हो गई। डॉ. हेडगेवार उस समय कांग्रेस में थे उन्हें खिलाफत आंदोलन के समर्थन वाली बात नहीं जमी। इसी तरह के कुछ और मुद्दे थे जिनसे नाराज होकर डॉ. हेडगेवार ने कांग्रेस छोड़ दी। यही वह प्वाइंट है जहां से भारत के स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बदली।
A Faithful Son of Bharat & Brave' – Gandhiji on Veer Savarkar - Organiser
यह एक विस्तृत विषय है जो बाद में भारत के विभाजन तक जाता है। आगे इस श्रृंखला में कुछ संदर्भों में मैं इसका जिक्र कर सकता हूं, लेकिन इस पर विस्तार से अलग अध्ययन किया जाना चाहिए। मैं अपनी इस श्रृंखला को हिंदुत्व, महात्मा गाँधी और रामराज्य के आसपास ही रखना चाहता हूँ। हालांकि पिछली कड़ी में हम यह जान चुके हैं कि इसके बावजूद डॉक्टरजी के मन में गाँधीजी के प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हिंदू महासभा की स्थापना के दस साल बाद १९२५ में हुई। १९२६ में देश में प्रथम निर्वाचन में अंग्रेजों ने असंबलियों में मुसलमानों के लिए स्थान सुरक्षित कर दिए। हिंदू महासभा ने पृथक निर्वाचन के सिद्धांत और मुसलमानों के लिए सीटें सुरक्षित करने की विरोध किया।

महात्मा गाँधी और सावरकर

वीर सावरकर के कथित माफीनामे पर बे सिर पैर की चर्चा करने के शौकीन लोगों से मेरा अनुरोध है वे जरा इसे चार- पाँच बार पढ़ लें। वैसे इस मुद्दे पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ। लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें बार-बार याद करना अच्छा लगता है। और यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सावरकर पर गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप लगा। वे जेल में भी रहे। हालांकि बाद में उन्हें निर्दोष पाया गया। लेकिन यह भारत देश है, यहां जो फैसला सेक्युलर लोगों के पक्ष में नहीं आता वे उसे मन से स्वीकार नहीं कर पाते। हाल ही में राम जन्मभूमि के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दोनों फैसलों ( राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण और बाबरी ढांचा विध्वंस) में इसे हमारी पीढ़ी भी देख चुकी है।

महात्मा गांधी और विनायकराव सावरकर के बड़े भाई नारायणराव सावरकर की पहली मुलाकात लंदन में २४ अक्टूबर १९०९ को हुई थी। उस दिन दशहरा था। लंदन में रहने वाले अलग-अलग पंथों के भारतीय अपने-अपने त्यौहारों के अवसर पर कार्यक्रमों का आयोजन करते थे और एक- दूसरे को भी अतिथि के रूप में बुलाते थे। कुछ उत्साही हिंदुओं ने वहां विजयादशमी के दिन एक भोज का आयोजन किया था. कार्यक्रम में शामिल होने के लिए टिकट रखी गई थी और टिकट की कीमत थी चार शिलिंग। गाँधीजी ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी। महात्मा गांधी के अनुसार ‘इस कार्यक्रम में नारायणराव सावरकर ने रामायण की महत्ता पर बहुत ही जोशीला भाषण दिया था.’ इस कार्यक्रम में हुसैन दाउद और हाजी हबीब नाम के दो मुस्लिम भी अतिथि के रूप में शामिल हुए थे।

१९२० में असहयोग आंदोलन चल रहा था। इसी दौरान अंग्रेज सरकार और गाँधीजी के बीच स्वतंत्रता सेनानियों की रिहाई की बातें चल रहीं थीं। ब्रिटिश सरकार राजनीतिक बंदियों को माफी दे रही थी। (राजनीतिक बंदियों को माफी देने की यह परंपरा आज भी जारी है।) उसी दौरान गणेश और विनायक सावरकर के बड़े भाई नारायणराव सावरकर को अपने पुराने परिचय के कारण लगा कि यदि महात्मा गाँधी कोशिश करेंगे तो उनके दोनों भाइयों को सजा में छूट मिल सकती है।

१८ जनवरी, १९२० को डॉ नारायणराव सावरकर ने महात्मा गांधी को पत्र में लिखा- ‘कल मुझे भारत सरकार द्वारा सूचित किया गया कि (कालापानी से) रिहा किए जाने वाले लोगों में सावरकर बंधु शामिल नहीं हैं। कृपया मुझे बताएं कि इस मामले में क्या करना चाहिए. मेरे दोनों भाई अंडमान में दस वर्ष से ऊपर कठिन सजा भोग चुके हैं, और उनका स्वास्थ्य बिल्कुल चौपट हो चुका है। उनका वजन ११८ पौंड से घटकर ९५-१०० पौंड रह गया है। यदि भारत की किसी अच्छी आबोहवा वाली जेल में भी उनका तबादला कर दिया जाए तो गनीमत हो। मुझे आशा है कि आप सूचित करेंगे कि आप इस मामले में क्या करने जा रहे हैं।’

२५जनवरी, १९२० को लाहौर से डॉ. सावरकर को लिखे अपने पत्र में महात्मा गाँधी कहते हैं - ‘प्रिय डॉ सावरकर, आपको परामर्श देना कठिन कार्य है. तथापि मेरा सुझाव है कि आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार करें ताकि यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से उभर आए कि आपके भाईसाहब ने जो अपराध किया था, उसका स्वरूप बिल्कुल राजनीतिक था। मैं यह सुझाव इसलिए दे रहा हूं कि तब जनता का ध्यान उस ओर केन्द्रित करना संभव हो जाएगा।इस बीच, जैसा कि मैं अपने एक पहले पत्र में कह चुका हूं, मैं अपने ढंग से इस मामले में कदम उठा रहा हूं।’ (इससे पता लगता है कि गाँधीजी ने कोई एक पत्र पहले भी डॉ. सावरकर को लिखा था)।

इसके बाद महात्मा गाँधी ने २६ मई, १९२०को यंग इंडिया में ‘सावरकर बंधु’ शीर्षक से एक विस्तृत लेख लिखा है। “भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों ने इस संबंध में जो कार्रवाई की उसके परिणामस्वरूप उस समय कारावास भोग रहे बहुत लोगों को राजानुकम्पा का लाभ प्राप्त हुआ है। लेकिन कुछ प्रमुख ‘राजनीतिक अपराधी’ अब भी नहीं छोड़े गए हैं। इन्हीं लोगों में मैं सावरकर बंधुओं की गणना करता हूँ। वे उसी माने में राजनीतिक अपराधी हैं, जिस माने में वे लोग हैं, जिन्हें पंजाब सरकार ने मुक्त कर दिया है। किंतु इस घोषणा (शाही घोषणा) के प्रकाशन के आज पाँच महीने बाद भी इन दोनों भाइयों को छोड़ा नहीं गया है।” इस मामले को इतनी आसानी से ताक पर नहीं रख दिया जा सकता। जनता को यह जानने का अधिकार है कि ठीक-ठीक वे कौन-से कारण हैं जिनके आधार पर राज-घोषणा के बावजूद इन दोनों भाइयों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा रही है, क्योंकि यह घोषणा तो जनता के लिए राजा की ओर से दिए गए ऐसे अधिकार पत्र के समान है जो कानून का जोर रखता है।”
यंग इंडिया के इस लेख को पढ़िए। गाँधीजी ने इस लेख में कानूनी रूप से सावरकर बंधुओं का पक्ष दृढ़ता के साथ रखा। इस सबके बाद ही सावरकर बंधुओं को छोड़ा गया। बात यहीं खत्म नहीं हुई। थोड़ा आगे चलते हैं अपने समाचार-पत्र ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी ने १८ मई, १९२१ को लिखा था -“सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए। अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र सदा के लिए हाथ से चले जाएंगे। एक सावरकर भाई को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला था। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं। वे क्रांतिकारी हैं और इसे छिपाते नहीं। मौजूदा शासन प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले, देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को, दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं।”
महात्मा गाँधीजी और सावरकर बंधुओं के बीच वैचारिक मतभेदों को इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इतना जानने के बाद कोई यह कैसे कह सकता है कि वे एक-दूसरे के दुश्मन थे। जब गाँधीजी की पहल पर सावरकर बंधुओं को माफी मिली तो वे बाद के वर्षों में गाँधीजी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होंगे। यह बात किसी भी विचारशील व्यक्ति के गले नहीं उतर सकती। १० फ़रवरी, १९४९ के फ़ैसले में विशेष न्यायालय ने गांधीजी की हत्या से वीर सावरकर को दोषमुक्त करार दिया था और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे आरोपो को भी न्यायालय ने नकार दिया था। अभी भी यह कहानी खत्म नहीं हुई है। 

(क्रमशः)
साभार: MANOJ JOSHI - 9977008211

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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