जाति व्यवस्था नहीं, जातिवाद दुश्मन है-दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

जाति व्यवस्था नहीं, जातिवाद दुश्मन है -दिनेश मालवीय भारत में आज जाति व्यवस्था को लेकर बहुत गरमागरम बहस छिड़ी हुयी है. इसे समाप्त करने के पक्ष में जितनी बातें हो रही हैं, यह उसकी तुलना में कम होती नज़र नहीं आ रही. बल्कि सच पूछिए तो यह बढ़ ही रही है. यह बहस जाति व्यवस्था और जातिवाद को एक ही मान लिए जाने के कारण हो रही है. हकीकत यह है कि ये दोनों बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं. जाति व्यवस्था ने जब जातिवाद का रूप लिया, तभी से इस बहुत अच्छी व्यवस्था में इतनी विकृति आ गयीं कि आज उसे समाप्त ही करने की बात चलने लगी है. जातिवाद को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान राजनैतिक दलों का है. वोट बैंक की राजनीति के चलते हर एक दल ने इसे खूब बढ़ावा दिया और आज भी दे रहे हैं. इससे कोई भी दल अछूता नहीं है. जातिगत भावनाओं को हवा देकर उनका अपने राजनैतिक हितों के लिए भरपूर दोहन किया जा रहा है. अगर जाति व्यवस्था की निरपेक्ष रूप से समीक्षा की जाए तो पता चलेगा कि यह  व्यवस्था कभी बहुत फायदेमंद रही है. इसने समाज और राष्ट्र का बहुत हित किया है. इसके कारण हर एक जाति के व्यक्ति को एक ऐसा वातावरण मिलता था,जहाँ वह स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस करता था. उसकी जाति के लोग उसके सुख-दुःख में सहभागी होते थे. लोगों को इसके रूप में एक ऐसी व्यवस्था प्राप्त थी, जो उसके आचार-व्यवहार को काफी हद तक नियंत्रित करती थी. हर व्यक्ति इस बात का बहुत ध्यान रखता था कि उसके आचरण में कोई ऐसी बात न हो या उससे ऐसा कोई कम न हो जाए जिससे जाति में उसका अपमान हो. इससे अपराध और दुराचार कम होते थे. बच्चों की शादी के लिए वर और बधु के चयन में उसकी जाति के लोग एक-दूसरे की मदद करते थे. अधिकतर व्यवसाय जाति-आधारित होते थे, लिहाजा किसी व्यवसाय या उसमें लगे किसी व्यक्ति पर कोई संकट आ जाने पर जाति के सभी लोग एकजुट होकर उसका विरोध कर न्याय प्राप्त करने की जी-जान से कोशिश करते थे. यह एक प्रकार से आज की ट्रेड यूनियन जैसा था. जाति के किसी व्यक्ति या परिवार पर कोई संकट आ जाए, परिवार का पालन करने वाले व्यक्ति की असमय मृत्यु हो जाए या कोई अन्य परेशानी आ जाए, तो जाति के लोग उस परिवार की सामूहिक रूप से भरपूर मदद करते थे. पीड़ित परिवार को किसी दूसरे के सामने मदद के लिए हाथ फैलाने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी. ऐसा अनेक जातीय समाजों में आज भी हो रहा है. कहा जाता था और आज भी कहा जाता है कि व्यक्ति की शोभा उसकी जाति से है. कोई भी व्यक्ति अपनी जाति-समाज से बड़ा नहीं है. जाति व्यवस्था में व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण उसकी जाति के अनुसार होता था. हर जाति का पाना ख़ास व्यवसाय होता था. उसके बच्चे भी उसी व्यवसाय को अपनाते थे. इसके लिए उसे घर के बड़े लोग उपयुक्त रूप से प्रशिक्षित करते थे. किसीको भी अपनी जाति के अनुसार मिले व्यवसाय पर शर्मिंदगी नहीं होती थी. उसे एक प्रकार का गर्व ही होता था. जाति से बाहर विवाह की प्रथा के भी अपने गुण थे. लड़की जिस पारिवारिक माहौल में जन्म और परवरिश पाती थी, लगभग वैसा ही परिवेश उसे अपनी ससुराल में भी मिल जाता था. इस तरह उसे अपनी ससुराल में सामंजस्य बनाने में कुछ अधिक कठिनाई होती थी. रीति-रिवाजों में थोड़े-बहुत अंतर को छोड़कर साड़ी बातें वैसी ही होती थीं, जैसी उसके मायके में होती थीं. इस कारण तलाक जैसी बुराई नहीं के बराबर थी. बुरा व्यवहार करने वाले का समाज में हुक्कापानी बंद कर उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था. यह व्यक्ति के लिए सबसे अधिक अपमानजनक बात होती थी. जाति व्यवस्था से सभी जातियाँ अपनी जातीय संगठन और उसके सदस्यों को मजबूत बनाने पर बहुत ध्यान देते थे. इससे वर्ग संघर्ष जैसी स्थिति नहीं बनती थी. सामाजिक राष्ट्रीय जीवन में शांति-व्यवस्था रहती थी. जाति में गरीब से गरीब और अमीर से अमीर आदमी के साथ समान रूप से व्यवहार किया जाता था. पारिवारिक विवादों के निराकरण के लिए जातीय पंचायतें होती थीं. उनके निर्णय सर्वमान्य होते थे और अदालतों में जाने की आवश्यकता नहीं होती थी. पंचों का निर्णय सभी को स्वीकार होता था. पंच भी समदृष्टा होते थे. इस व्यवस्था से धर्म परिवर्तन की प्रवृत्ति पर भी काफी रोक लगी. व्यक्ति इस बात से डरता था कि समाज क्या कहेगा. विकृति कालांतर में जाति व्यवस्था में जातिगत भेदभाव का दोष आया गया, जो सामाजिक समरसता के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ. यहीं से यह सुंदर व्यवस्था विकृत होती चली गयी. कतिपय जातियाँ अपने आपको दूसरी जातियों से श्रेष्ठ मानने लगीं. दूसरी जातियों को दोयम माना जाने लगा. पहले जातियों और जातीय संगठनों के बीच एक-दूसरे से आगे निकलने और अधिक  प्रगति करने की प्रतिस्पर्धा अवश्य होती थी, लेकिन इसका स्वरूप स्वस्थ था. इसमें कोई बैरभाव नहीं था. धीरे-धीरे यह स्वस्थ भावना कम होने लगी और इसने प्रतिद्वंदिता का रूप ले लिया. राजनैतिक हित साधने वालों ने अपने राजनैतिक हितों के लिए इस विकृति को खूब हवा दी. आजादी के बाद ऐसा लगता था कि अब यह विकृति चली जायेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राजनैतिक दलों ने जातीय आधार पर लोगों को संसद और विधानसभाओं के टिकट देना शुरू कर दिया. वह उस व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने लगे, जिसकी जाति के सदस्यों की संख्या उसके चुनाव क्षेत्र में अधिक होती थी. इसने विकृति को इतना भयानक रूप दे दिया है कि अब लोग जाति व्यवस्था को समाप्त करने की बात कर रहे हैं. मज़े की बात तो यह है कि जाति व्यवस्था का विरोध करने वाले दल अपनी सरकार बनने पर योजनायें जाति-आधारित बनाने लगे. सरकारी फार्मों में जाति का कॉलम आज भी रहता है. फिर पिछड़ा वर्ग की राजनीति आयी, जिसने जातीय विभाजन को और भयानक रूप दे दिया. जाति व्यवस्था को समाप्त करने वालों को यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि यह एक ऐसी चीज है, जो भारतीय समाज से कभी जड़-मूल से समाप्त नहीं होने वाली. कोई कितना भी शिक्षित हो या बड़े पद पर बैठा हो, उसमें जातीय भावना देखने को मिलती है. देखा तो यह जा रहा है कि शिक्षा के साथ यह और भी बढ़ रही है. जरा मंत्रालयों और सरकारी दफ्तरों में जाकर देखिये कि जातीय विभाजन और विदेश कितना अधिक है. यहाँ सभी लोग शिक्षित हैं. जहाँ कथित ऊंची जाति के लोग अपनी जाति पर गर्व करते हैं, वहीँ कथित नीची जाति के लोग उन्हें सबक सिखाने की बात करते हैं. दुःख की बात यह है कि कथित नीची मानी जानी वाली जातियों के लोगों के मन में यह भावना बहुत सुनियोजित रूप से भरी जा रही है, कि ऊँची जाति वालों ने तुम्हारे पूर्वजों पर बहुत जुल्म किये हैं. इस बात में कुछ सच्चाई है कि मध्यकाल में ऐसा हुआ, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ जैसा बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है. एक तरफ कहा जा रहा है कि पिछली बातें भूलकर नए समाज का निर्माण किया जाए, वहीँ पिछली बातों को खूब याद दिला-दिला कर जातीय द्वेष को बढ़ावा भी दिया जा रहा है. इस पूरे विमर्श का सार यही है कि दोष जाति व्यवस्था में नहीं, बल्कि जातिवाद में है. जातीय संगठन आज भी सक्रिय हैं और अनेक अर्थों में उनके द्वारा अच्छे काम भी किये जा रहे हैं. ज़रुरत जाति व्यवस्था को नहीं बल्कि जातिवाद को समाप्त करने की है.