Know India: The History of Ancient India, Indian Culture:भारतीय सांस्कृतिक धरोहर : चेतना के एकीकृत संस्कार के रूप में स्थित एक सांस्कृतिक निरन्तरता


स्टोरी हाइलाइट्स

भारतीय-जन ... भारतीय सांस्कृतिक धरोहर : चेतना के एकीकृत संस्कार के रूप में स्थित एक सांस्कृतिक निरन्तरता Culture And Heritage - Ancient History - Know India: The History of Ancient India, Indian Culture: भारत में मनुष्य का अस्तित्व उतना ही प्राचीन है जितना कि हिम-युग (Pleistocene age) का मध्य-भाग चेतना के एकीकृत संस्कार के रूप में स्थित एक सांस्कृतिक निरन्तरता लगभग पाँच हजार वर्षों से भारत को एकता की प्रतीक रही है, जिसने कि उसकी आंतरिक संरचना को एक निश्चित रूप प्रदान किया है, किन्तु यह एकता या एकरूपता स्थैतिक नहीं रही है। इसके विपरीत उसकी परम्परा की संरचना विभिन्न मूल्य-सारणियों, अनुष्ठान-पद्धतियों एवं विश्वास-पुंजों के मध्य निरन्तर एकता स्थापित करने के साथ साथ भारतीय सभ्यता के अंगीकृत अनेकानेक सांस्कृतिक विश्वासों एवं परिपाटियों को एक विश्वव्यापी जीवन-दृष्टि का परिप्रेक्ष्य प्रदान करने में भी संगठन रही है। उसकी सारभूत सरचना तथा तदाश्रित प्रक्रियाएँ दोनों ही विभिन्न रूप एवं आयाम ग्रहण कर विस्तार प्राप्त करती है, जिनमें से प्रत्येक एक जलधारा या नदी की भाँति एक स्थानीय या क्षेत्रीय परिवेश में प्रवाहित होती रही है और तदनुरूप परिवर्तन झेलती रही है। किन्तु अन्ततोगत्वा उनमें से प्रत्येक किसी भी अन्य जलधारा या नदी की ही भांति भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के विशाल महासागर में मिलती रही है। भारतीय संस्कृति की क्षेत्रीय परम्पराओं के रूपांतरण एवं संश्लेषण की प्रक्रियाओं के माध्यम से उसकी व्यापक परम्परा में विलयन एक ऐतिहासिक वास्तविकता है। सांस्कृतिक संश्लेषण की प्रक्रिया भारतीय संस्कृति के विभि रूपों में नागर-संस्कृति, ग्राम्य-संस्कृति एवं लोक-संस्कृति जैसे रूप अन्तर्निहित हैं। विद्यमान साक्ष्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में मनुष्य का अस्तित्व उतना ही प्राचीन है जितना कि हिम-युग (Pleistocene age) का मध्य-भाग। यत्र-तत्र उपलब्ध पुराप्रस्तर युगीन उपकरणों से यह इंगित होता है कि यहाँ से आखेट करने, मछलियाँ पकड़ने तथा खाद्य-पदार्थ एकत्र करने में संलग्न छोटे-छोटे मानव-समूहों का प्रव्रजन हुआ था। हिमालय की संरचना के अनुशीलन से यह संकेत प्राप्त होता है कि उसने हिमनदीय तथा अंतर्हिमनदीय युगों का उत्थान-पतन देखा है और इसके साथ ही यह भी अनुमान लगाया जाता है कि दक्षिण के पठार तथा दक्षिणी क्षेत्र में तदनुरूप बहुवर्षीय तथा अंतर्बहुवर्षीय युगों का उत्थान-पतन हुआ होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरातन युग के मनुष्य सामान्यतः नदियों के किनारों पर बसे होंगे और उत्तर पश्चिम के अपेक्षाकृत ठण्डे क्षेत्र में उन्होंने गुफाओं में निवास करना उचित समझा होगा। एकदम उत्तर में नहीं तो उत्तर-पश्चिम में तो ऐसा करना ही उचित रहा होगा। भारत में उपलब्ध प्रस्तर युगीन अश्मलेखों से यह इंगित होता है कि तत्कालीन मनुष्य अपनी भौतिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने में संलग्न थे, यद्यपि उनकी गति निश्चय ही धीमी थी। प्रस्तर-युग के मध्य-भाग तक पहुँचते-पहुँचते उन्होंने उपकरण-निर्माण की सामग्री ही नहीं वरन् तकनीक भी परिवर्तित कर ली थी, किन्तु हम उनकी जीवन-शैली के संबंध में पूरा ज्ञान प्राप्त करने में अभी तक सफल नहीं रहे हैं मिर्जापुर में प्राप्त पराप्रस्तर युगीन अश्मलेखों के अनुशीलन से हमें पुरातन बस्तियों के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत ज्ञान उपलब्ध होता है। उससे पूर्व के मनुष्य अनुत्पादक अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध थे और उनका सामाजिक जीवन अनिश्चित एवं प्रव्रजनशील था। इतने पर भी उन्होंने एक ऐसी सामाजिक परम्परा अवश्य विकसित की होगी जिसमें कि विभिन्न सम्बन्धों का निर्वाह, मृतकों का संस्कार, पेड़-पौधों या पशु-पक्षियों का ज्ञान, उपकरण-निर्माण की तकनीक, खाद्य सामग्री की प्राप्ति, धार्मिक एवं जादुई अनुष्ठानों का आयोजन, पौराणिक एवं धार्मिक चित्रांकन तथा संगीत एवं नृत्यों के सम्पादन की परिपाटियाँ निहित होगी। इस परम्परा के विकसित होने तक मनुष्य भारत में कम-से-कम एक लाख वर्ष व्यतीत कर चुका होगा। यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि भारत में आत्मनिर्भर खाद्यान-उत्पादक अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध विकास का दूसरा चरण किस प्रकार अग्रसर हुआ। नवाश्मलेखीय क्रांति का आविर्भाव भारत में पहले हुआ। मालवा क्षेत्र में हाल में की गई खुदाई में मध्य भारत में स्थिर जीवन की प्राचीनता को और भी पीछे धकेल दिया है। उससे यह इंगित होता है कि वहाँ पर स्थिर ग्राम और अस्थिर आखेटक निवास दोनों एक-दूसरे के निकट स्थित थे। उन्हें क्रमशः ग्राम और दिल्ली कहा जाता था। फलतः ग्रामीणों और आखेटको के मध्य उपयोगी वस्तुओं का विनिमय ही नहीं वरन् परम्पराओं, प्रतीकों, विश्वासों एवं संस्थाओं का मिश्रण भी अपरिहार्य हो गया था इस प्रकार सन् 3000 ई.पू. में भारत में जिस ग्रामीण समाज का अभ्युदय हुआ, उसने पीपल वृक्ष और वृषभ तथा पशुपति और मातृदेवी के पूजन की एक नवीन परम्परा को अंगीकार किया। सिन्धु-लिपि-विषयक अनभिज्ञता के कारण हम सिन्धु-सभ्यता के वास्तविक रूप को समझने में असमर्थ रहे हैं और यह हमारे लिये एक रहस्य बना हुआ है, किन्तु इतना स्पष्ट है कि हड़प्पा के निवासियों में जातीय एकरूपता का अभाव था क्योंकि उनके अवशिष्ट कंकाल यही इंगित करते हैं कि उनका समाज विभिन्न जातियों के मनुष्यों का ठीक वैसा ही मिश्रण था जैसा आज का पंजाबी समाज है। वे आर्यों से इसलिये भिन्न थे कि उन्हें अश्व का उपयोग करना नहीं आता था। यद्यपि हड़प्पा के निवासियों के वास्तविक रूप का सम्यक ज्ञान उपलब्ध नहीं है तथापि इस बात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं कि उनकी सभ्यता के अनेक तत्व परवर्ती भारतीय परम्परा के अंश बन गये थे। हड़प्पा की सभ्यता का भौतिक आधार सन् 1800 ई.पू. में अज्ञात कारणों से नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। क्रमागत गतिहीनता, बाडे, शोषण की प्रक्रिया, पर्यावरण की क्षीणता और आर्यों के आक्रमणों को सिन्धु सभ्यता के पतन के प्रमुख कारणों में गिना जाता है। इस प्रकार भारत के उत्तर-पश्चिम में सन् 3000 ई.पू. में विस्तृत एक नगर सभ्यता का अंत हुआ और उसके स्थान पर एक ग्राम्य एवं वन्य वैदिक सभ्यता अस्तित्व में आई। यहाँ पर हम यह कह सकते है कि वैदिक युग में अर्थात सन् 1500 ई.पू. से लेकर सन् 500 ई.पू. के मध्य भारत में आर्य और अनार्य सभ्यताओं के संश्लेषण के माध्यम से एक विशिष्ट भारतीय परम्परा का निर्माण किया गया था। आर्यों ने अपने निवास एकदम खुले स्थानों पर बनाये, जो कि या तो खुले मैदानों में स्थित भीड़ भाड़ से रहित ग्रामों के रूप में सामने आये या नदियों के किनारों पर स्थित वन्य आश्रमों के रूप में। ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों को वन्य जीवन विशेष प्रिय था। महाभारत में वर्णित जीवन-शैली अपनाने से पूर्व उन्हें अनेक परिवर्तन झेलने पड़े थे। इस प्रकार उनके जीवन में यायावरों की निस्पृह सरलता के स्थान पर नागरों की सम्पन्न जटिलता प्रविष्ट हो गई थी। रंग-भेद से उत्पन्न हीनता या उच्चता की भावना का सर्वथा अभाव उपर्युक्त युग की एक उल्लेखनीय विशेषता थी। महाभारत के नायक एवं नायिका रंग-भेद की भावना से पूर्णतः मुक्त थे। वे प्रेम एवं विवाह करते समय अपनी प्रेमिका में प्रेमिका के रंग का नहीं वरन् सौंदर्य का ध्यान रखते थे। महाभारत की सुन्दरतम स्त्री द्रौपदी श्याम रंग की थी और उसके सुन्दरतम पुरुष श्रीकृष्ण भी श्याम रंग के ही थे। इससे यह इंगित हहै कि तत्कालीन भारतीय समाज आर्यों, द्रविड़ों एवं अन्य पुरातन आदिम जातियों के मिश्रण से निर्मित हुआ था। तत्कालीन समाज में जाति-भेद ऊपर से आरोपित नहीं किया जाता था। एक संयोजक प्राधिकारी उसका नियमन इस प्रकार करता था कि समाज के विभिन्न सदस्यों से भिन्न-भिन्न सेवायें भी प्राप्त की जा सकें और साथ उन्हें जीविकोपार्जन की चिंता तथा प्रतिस्पर्धा के भय से मुक्त रखा जा सके। कोई भी हिन्दू तब तक अपनी जाति का त्याग करने के लिये तत्पर नहीं होता था जब तक कि वह सांसारिक जीवन से विमुख होकर साधु का जीवन अपनाने का संकल्प नहीं ले लेता था। एक साधु किसी भी धार्मिक संगठन का सदस्य बनने के लिये स्वतंत्रत रहता था। यह परम्परा आज तक जीवित है। बौद्ध-धर्म के द्वार सभी व्यक्तियों के लिए खुले रहते है- चाहे वे उच्च जाति के हो अथवा निम्न जाति के। हैं. सामान्य बौद्ध-समाज में जाति-भेद प्रचलित रहा है और श्रीलंका का समाज इसका ज्वलन्त दृष्टान्त प्रस्तुत करता है। जैन समाज भी जाति-भेद का अनुसरण करता है। यही बात सिख समाज पर भी लागू होती है। भारत के कुछ भागों में हिन्दुओं ने मसीही धर्म अपना लिया है किन्तु प्रजातीय सम्बन्धों को कायम रखा है। भारत के कई भागों में मुसलमानों ने भी जाति-भेद को कायम रखा है। वैदिक युग के कृषि समाज के शलाकापुरुष थे और अध्यात्म तथा राजनीति के क्षेत्रों में उसका मार्गदर्शन करते थे। किन्तु अन्य आत्मा के नष्ट होने तथा सामाजिक रीति-नीति में परिवर्तन आने पर वे अदृश्य हो गये। उनके स्थान पर साधु प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने अपनी उदारता एवं सहिष्णुता से समाज की प्रगाढ़ श्रद्धा अर्जित की। अनेक स्थानों पर मठों की स्थापना की गई, जो कि धर्म के ही नहीं वरन् शिक्षा के भी केन्द्र बने। इस प्रकार वन्य आश्रम भुला दिये गये। पूरे देश में धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं का जाल फैल गया, जिनमें बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण प्रविष्ट होते रहे। सन् 600 ई.पू. तक भारत में एक मिश्र संस्कृति विकसित हो चुकी थी और उसने प्रवासियों की अनेक लबों को आत्मसात कर लिया गया था। विदेशी स्वदेशी बन गये थे। स्वदेशी नागरिक शासन में शीर्षस्थ स्थानों पर प्रतिष्ठित हो गये थे, यद्यपि समाज में उनकी स्थिति भिन्न थी। एक ओर से तो यूनानी, शक तथा कुषाण भारत में प्रविष्ट हो रहे थे और दूसरी ओर से भारतीय नागरिक इण्डोनेशिया, इण्डो-चायना तथा चीन जैसे पूर्वी देशों की ओर पलायन कर रहे थे। विदेशी अप्रवासी एक नये निवास स्थान एवं अधिकारक्षेत्र की खोज में संलग्न थे और स्वदेशी प्रवासी धनसम्पन्नता की खोज में। धर्म एवं संस्कृति का फैलाव हाथों हाथ हुआ। तत्कालीन वर्णाश्रम-व्यवस्था बहुत कठोर नहीं थी। एक ही व्यक्ति वर्ण की दृष्टि से क्षत्रिय, धर्म की दृष्टि से वैष्णव तथा जाति की दृष्टि से शक हो सकता था। कुछ पीढ़ियों के पश्चात जाति का महत्व भी समाप्त हो गया था क्योंकि विभिन्न प्रजातियों के लोग हिन्दू नाम अपनाने लगे थे। जाति की शुद्धता की धारणा उतनी ही निराधार थी जितनी कि रक्त की शुद्धता की अवधारणा। सन् 600 ई.पू. तक भारत ने एक नागर सभ्यता का ही नहीं वरन् एक वन्य सभ्यता का भी उत्थान पतन देख लिया था। इधर सन् 600 ई. तक उसने मौर्य और गुप्त साम्राज्यों का उत्थान-पतन भी देख लिया था। ये दोनों साम्राज्य सुदूर के समुद्रों तथा देशों तक विस्तृत थे और इनका विस्तार मात्र व्यापारिक स्तर पर ही नहीं वरन् सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्तर पर भी हुआ था। इसके साथ ही भारत ने यूनानियों, शकों तथा कुषाणों का आव्रजन भी देख लिया था। वे अपने साथ नये विचार तथा नई प्रेरणाएँ लाये थे, जिनके संसर्ग से भारत की कलाएँ तथा विद्याएँ अत्यधिक समृद्ध एवं विस्तृत हुई  । गुप्त साम्राज्य का स्वर्णिम युग प्राचीन काल के चरमोत्कर्ष का द्योतक था। वह एक अभूतपूर्व युग था। उसने पुनर्जागरण-काल की भाँति एक नई परम्परा को प्रारम्भ किया, न कि एक प्राचीन परम्परा को समाप्त किया। उसने वेदों की सर्वोच्चता की पुन प्रतिष्ठा की, जिनसे कि ब्राह्मणों ने आध्यात्मिक गुरुओं के रूप में अपनी वरीयता ग्रहण की थी। क्षत्रिय सत्ताधीशों के रूप में प्रतिष्ठित थे। सम्पूर्ण समाज सामन्तवादी था। यद्यपि मसीही गिरजाघर की भाँति कोई हिन्दू मठ स्थापित नहीं हो पाया था तथापि शंकराचार्य जैसे धर्मगुरुओं ने अनेक मठों की स्थापना कर, नाना मठवासीय सम्प्रदायों को जन्म दे दिया था किन्तु हिन्दू-धर्म का ऐसा पुनरुत्थान बौद्ध-धर्म के विरोध से अनुप्राणित था और बौद्ध-धर्म के निष्प्रभ होने तथा बौद्ध-राज्यों के पतन होने के साथ ही वह भी ह्रासमान हो गया था। प्राचीन काल के अन्तिम चरण अर्थात् सन् 1200 ई. तक सामाजिक सुरक्षा को परिपुष्ट करने के लिए भारत ने दो सशक्त संस्थाओं का विकास कर लिया था, जिनमें से एक थी जाति-व्यवस्था और दूसरी थी संयुक्त परिवार-प्रणाली। जाति और परिवार सर्वाधिक सुरक्षा प्रदान करने की शक्ति रखते थे। भारत के इतिहास का मध्यकाल लगभग बारह सौ वर्ष का था। यद्यपि मध्यकाल का पूर्वार्द्ध हास का काल माना जाता है तथापि वह विकास का काल भी था वे आधुनिक भारतीय भाषाएँ जिनमें समृद्ध एवं विस्तीर्ण साहित्य उपलब्ध है, उस काल में ही जन्मी थी। उनका आविर्भाव देश के लोक साहित्य से हुआ था, जिससे सम्बद्ध लोक संस्कृति को धारा विभिन्न युगों में निर्बाध प्रवाहित होती रही थी। भद्र-समाज ने भले ही उसकी अपेक्षा की हो, किन्तु वह राजाओं या उनके दरबारियों के संरक्षण पर कभी भी निर्भर नहीं रहीं। उससे हो नई भाषाएँ तथा विशिष्ट क्षेत्रीय संस्कृतियाँ निःसृत हुई। मध्यकाल के प्रारम्भ में हिन्दुओं ने भव्य मन्दिर, सुन्दर मूर्तियाँ तथा मनोरम हस्तशिल्प की कृतियों का निर्माण करने में दक्षता प्राप्त कर ली थी। ज्ञान का अर्जन वास्तविक संसार के अनुभव पर निर्भर रहता है और इस प्रकार के अनुभव को निरन्तर नवीन बनाये रखने को चेष्टा के अभाव में ज्ञान का विस्तार अवरुद्ध हो जाता है, किन्तु मध्यकाल में भक्ति को ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता रहा। तत्कालीन समाज उत्तरोत्तर कठोर एवं अगम्य होता गया। फलतः वह रूढ़िवादी मानसिकता पर आधारित एक अपरिवर्तनशील समाज बनता गया। इस प्रकार सन् 600 ई. से लेकर सन् 1200 ई. तक का काल भारतीय समाज के हास का काल था। किन्तु उस युग में भी भारतीय समाज ने अध्यात्म के क्षेत्र में अपनी प्रगति बनाये रखने की चेष्टा की थी। उस युग में वैष्णव, शैव एवं शाक्त सम्प्रदाय फले-फूले और भक्ति या उपासना में आस्था रखने वाले व्यक्ति परम शान्ति का जीवन व्यतीत करते रहे। जब अरब के लोग भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रविष्ट हुए और इतिहास-प्रसिद्ध सिन्धु घाटी पर अपना आधिपत्य स्थापित करने लगे, तब उनका सशक्त विरोध नहीं हुआ। वस्तुतः भारत में मुसलमान-सन्तों का स्वागत किया गया और उन्हें भारतीयों के धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन के पथप्रदर्शकों के रूप में स्थायी महत्व का स्थान प्रदान किया गया। वह सब तब किया गया जब कि अरब, तुर्क और मुगल आक्रमणकारी भारत में आते और जाते ही नहीं रहे वरन् सत्ता पर अपना अधिकार जमाने और फिर उसको हस्तान्तरित करने में तथा साम्राज्यों को स्थापित करने और फिर उन्हें ध्वस्त करने में संलग्न रहे। निरक्षर और विशेषकर दमित वंचित वर्ग के हिन्दू तो बहुत बड़ी संख्या में इस्लाग-धर्म के अनुयायी बनते रहे। सन् 1200 ई. से लेकर सन् 1800 ई. तक भारत पर तुर्को और मुगलों का आधिपत्य रहा। फारसी को राजभाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया और मध्य-पूर्व की संस्कृति शासक वर्ग की संस्कृति बन गई। वह युग दो प्रजातियों के मध्य भीषण संघर्ष का युग था। उस संघर्ष में एक पक्ष इस्लामी था और दूसरा भारतीय। ऐसे भीषण एवं सुदीर्घ संघर्ष का अन्त तभी हो सकता था जो कि उसमें अनुरत दोनों पक्ष एक दूसरे से भलीभांति परिचित हो जाते और इस प्रकार के परिचय द्वारा उन्हें अपने संघर्ष का एक असैनिक समाधान ही सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत होता। अन्ततः उनके संघर्ष का जो समाधान खोजा गया वह विशिष्टतः भारतीय था उसमें हिन्दू और मुसलमानी संस्कृतियों का संश्लेषण समाविष्ट था, जिसने एक अत्यंत समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक विरासत का निर्माण किया। अंग्रेजों के शासन काल में भारत का सांस्कृतिक परिदृश्य शीघ्रता के साथ परिवर्तित हुआ। परम्परागत जीवन प्रणालियाँ तथा विश्वास-पुंज यथास्थान बने रहे, किन्तु एक नये शिल्प-विज्ञान तथा एक वैकल्पिक मूल्य सारणी से अप्रभावित रहना उसके लिये असंभव हो गया। नई पीदी के कुछ लोग पाश्चात्य जीवन-शैली से अवगत थे और उन्होंने वैज्ञानिक ज्ञान भी अर्जित कर लिया था। मुद्रण-यंत्र के आगमन से ज्ञान के प्रचार-प्रसार की गति बढ़ गई थी। उसका प्रभाव यत्र-तत्र सर्वत्र परिलक्षित हो रहा था। पत्र-पत्रिकाओ और पुस्तकों की बाढ़ आ गई थी। जीवन और जगत के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित हो रहा था प्रत्येक वस्तु का विश्लेषण तर्क बुद्धि के आधार पर किया जाने लगा था भाषण-कला में यह परिवर्तन स्पष्ट रूप में परिलक्षित होता था। लेखक : हीरालाल शुक्ल :  Culture And Heritage - Ancient History - Know India: The History of Ancient India Indian Culture: Traditions and Customs of India Ancient India Culture Started with the Beginning of the Human Ancient India: Civilization and Society history of india, indian culture, indian civilization summary, brief history of india, ancient india timeline, 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