कृषि कानून पर चर्चा दोनों पक्षों के लिए लाभदायी..आशीष दुबे


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स्टोरी हाइलाइट्स

केंद्र सरकार ने कानून वापसी के लिये संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन, पहला काम, तीन कृषि कानूनों को रद्द करने का किया..

घटनाएं कई मोड़ लेने के बाद इतिहास बन जाती हैं। केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों को रद्द का मामला भी कुछ ऐसा ही है। यह भी इसलिये कि जब कानूनों को वापस लेना पड़ा हो। सरकार ने कानून वापसी के लिये संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन पहला काम यही किया। आनन-फानन में विधेयक लोकसभा और राज्यसभा में पारित हो गया। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ तीनों कृषि कानून इतिहास की विषय-वस्तु होंगे। साथ ही यह एक केस स्टडी की तरह अध्ययन करने योग्य भी होगा कि आखिर कैसे इन कृषि कानूनों को लाया गया और फिर किन हालात में इनको रद्द करना पड़ा। प्रधानमंत्री का वादा था कि सत्र में यह काम किया जायेगा।

हालांकि यह वापसी भी बहुत बेहतर नहीं रही क्योंकि सदन में हंगामा होता रहा। विपक्षी नेता इस पर चर्चा की मांग करते रहे। हालांकि इस पर बहस की गुजाइश भी थी, लेकिन इसमें सरकार को भी ज्यादा तीखे शाब्दिक हमलों का खुटका होगा। वरना स्वस्थ बहस होती, तो कानूनों के बारे में अनेक पक्ष भी सामने आ सकते थे। केवल विपक्ष के नेताओं ही हमले का नहीं, बल्कि सत्ता पक्ष के नेताओं को भी इन कानूनों की पैरोकारी का मौका मिलता। फिर एक बार तीन कानूनों के फायदे-नुकसान पर कारगर बहस होती। हालांकि, प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण से यह बात तो साफ हो गई कि सरकार अब तीनों कृषि कानूनों पर नहीं अड़ेगी। अत सत्ता पक्ष ने राजनीतिक रूप से कानूनों की बगैर बहस वापसी को ही उचित माना।

यह भी गौर करने की बात है कि कृषि जैसे गंभीर और बुनियादी विषय पर संसद में अब पहले जैसी चर्चा नहीं होती है। कृषि की समग्र बेहतरी और किसान आंदोलन की अब प्रासंगिकता पर संसद में बहस होनी ही चाहिये। कोई आश्चर्य नहीं, बगैर चर्चा कानूनों के निरसन पर विपक्षी नेताओं ने हंगामा भी किया है। बहरहाल संसद की गरिमा सुनिश्चित करने के लिए ही मानसून सत्र में हंगामे और अनुशासनहीनता के आरोप में राज्यसभा के 12 सांसदों को निलंबित कर दिया गया है। निलंबित होने वालों में कांग्रेस, टीएमसी, शिव सेना, सीपीएम के सांसद शामिल हैं। वाकई, सांसदों का आचरण सभ्य और लोकतांत्रिक होना चाहिए, तभी संसद ठीक से काम कर सकती है।

पिछले सत्र में पेगासस जासूसी मामले और तीन कृषि कानूनों सहित अन्य मामलों पर हंगामे के चलते लोकसभा में मात्र 22 प्रतिशत और राज्यसभा में महज 28 प्रतिशत कामकाज हो पाया था। ताजा सत्र भी पिछले सत्र से नहीं आ रहा है क्योंकि बार-बार कार्रवाई बाधित हो रही है। दूसरी ओर किसान भी अभी तक तो आंदोनल पर अड़े ही हैं। जबकि मुख्यमांग इन कानूनों को वापस लेने की थी, लेकिन अब वे इसमें अन्य मांगों को भी जोड़ रहे हैं। यह सही है कि कृषि क्षेत्र को बहुत सी राहतों की दरकारें हैं लेकिन एक मोर्चा जीतने के बाद किसानों के संगठनों को भी ज्यादा सकारात्मक नजरिये व सुझावों के साथ सरकार के सामने आना चाहिये, मगर अभी तो दोनों पक्षों में संवाद की कोई सूरत ही नजर नहीं आ रही है। सरकार ने औचक कानून लाए और औचक ही वापस ले लिया, दोनों बार संबंधित पक्ष से संवाद नदारद ही रहा।