भारतीय शिल्प में मूर्ति निर्माण : प्राचीन काल से चली आ रही है परंपरा


स्टोरी हाइलाइट्स

भारतीय शिल्प में मूर्ति निर्माण की परंपरा बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही है the-tradition-of-idol-making-in-indian-crafts-has-been-going-on-since-very-ancient-times

भारतीय शिल्प में मूर्ति निर्माण की परंपरा बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही है कला इतिहासकारों इन प्रतिमाओं को उनके लक्षण एवं शैलियों के आधार पर विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं किन्तु कभी कभी ऐसी विलक्षण प्रतिमाएं मिल जाती हैं, जो पुरातत्व वेत्ताओं एवं कला इतिहासज्ञों के लिए समस्या बन जाती है| ऐसी ही एक प्रतिमा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के तला गांव में प्राप्त हुई है. बलोदाबज़ार-भाटापारा जिले के समीपस्बिथ जिला बिलासपुर से ३० किलो मीटर दूर मनियारी नदी के किनारे अमेरी-कांपा नामक गांव के "ताला" नामक स्थान पर दो भग्न मंदिर हैं| जो देवरानी-जेठानी मंदिर के नाम से प्रसिद्द हैं| देवरानी-जेठानी मंदिर अमेरिकापा - तालगांव बिलासपुर जेठानी मंदिर अत्यंत ही ख़राब हालत में है, एक पत्थरों के टीले में बदल चूका है| जबकि देवरानी मंदिर अपेक्षाकृत बेहतर हालत में है| ये दोनों मंदिर अपनी विशिष्ट कला के कारण देश-विदेश में प्रसिद्द हैं| समय समय पर यहाँ मलबे की सफाई होती रहती है| यहाँ पर पहले मिटटी के बड़े-बड़े ढेर थे| फिर किसी ने इनकी खुदाई की तो इसमें से बड़े-बड़े पत्थरों पर खुदाई किये हुए खम्भे निकले| उसके बाद पुरातत्व विभाग ने यहाँ पर खुदाई की और ये मंदिर निकले| भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी डॉ. के.के. चक्रवर्ती के मार्ग दर्शन में इस स्थान का मलबा सफाई का काम हुआ| जिससे 17 जनवरी 1988 को एक विलक्षण प्रतिमा प्रकाश में आई| यह विशाल प्रतिमा 9 फुट ऊँची एवं 5 टन वजनी तथा शिल्प कि दृष्टि से अद्भुत है| इसमें शिल्पी ने प्रतिमा के शारीरिक विन्यास में पशु पक्षियों का अद्भुत संयोजन किया है| मूर्ति के सर पर पगड़ी के रूप में लपेटे हुए दो सांप है| नाक और आँखों की भौहों के स्थान पर छिपकिली जैसे प्राणी का अंकन किया गया है, मूछें दो मछलियों से बनायीं हैं, जबकि ठोढ़ी का निर्माण केकड़े से किया गया है, कानों को मोर (मयूर) की आकृति से बानाया है, सर के पीछे दोनों तरफ सांप के फेन बनाये हैं, कन्धों को मगर के मुख जैसा बनाया है जिसमे से दोनों भुजाएं निकलती हुयी दिखाई देती हैं| शरीर के विभिन्न अंगों में 7 मानव मुखाकृतियों का चित्रण मिलता है| वृक्ष स्थल के दोनों ओर से दो छोटी मुखों का चित्रण किया गया है| पेट (उदर) का निर्माण एक बड़े मानव मुख से किया गया है| तीनो मुख मूछ युक्त हैं| जांघों के सामने की ओर अंजलिबद्ध दो मुख तथा दोनों पार्श्वों में दो अन्य मुख अंकित है| दो सिंह मुख घुटनों में प्रदर्शित किये गए हैं| उर्ध्वाकार लिंग के निर्माण के लिए मुंह निकाले कच्छप (कछुए) का प्रयोग हुआ है| घंटा की आकृति के अंडकोष पिछले पैरों से बने हैं| सर्पों का प्रयोग पेट तथा कटिसूत्र (तागड़ी) के लिए किया गया हैं| हाथों के नाख़ून सर्प मुख जैसे हैं| बांयें पैर के पास एक सर्प का अंकन मिलता हैं| इस प्रकार की प्रतिमा देश के किसी भी भाग में नहीं मिली हैं| अभी तक यह नहीं जाना जा सका हैं कि यह प्रतिमा किसकी हैं और इसका निर्माण किसने और क्यों किया? यह प्रतिमा पुराविदों के लिए भी एक पहेली बन गई है। फ़िर भी इसे "रुद्रशिव" माना जा रहा है। प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के शरभपुरीय राजावो के राजत्वकाल में मनियारी नदी के तट पर ताला नामक स्थल पर अमेरि काँपा गाव के समीप दो शिव मंदिर का निर्माण कराया गया था| जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है :- देवरानी मंदिर :- इस मंदिर में प्रस्तर निर्मित अर्ध भग्न देवरानी मंदिर,शिव मंदिर है| जिसका मुख पूर्व दिशा कि ओर है| इस मंदिर के पीछे कि तरफ शिवनाथ कि सहायक नदी मनियारी प्रावाहित हो रही है| इस मंदिर का माप बहार कि ओरसे ७५ *३२ फिट है जिसका भू–विन्याश अनूठा है| इसमें गर्भगृह, अंतराल एवं खुली जगह युक्त संकरा मुखमंडप है| मंदिर में पहुच के लिए मंदिर द्वार कि चंद्रशिलायुक्त देहरी तक सीढ़ियां निर्मित है| मुख मंडप में प्रवेश द्वार है| मंदिर कि द्वारशाखाओ पर नदी देवियों का अंकन है| सिरदल में ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी का अकन है| इस मंदिर में उपलब्ध भित्तियों कि उचाई १० फिट है इसके शिखर अथवा छत आभाव है| इस मंदिर स्थली में हिन्दू मत के विभिन्न देवी–देवताओ,व्यन्तर देवता पशु ,पौराणिक आकृतिया,पुष्पांकन एवं विविध ज्यमितिक एवं अज्यमितिक प्रतिको के अंकलनयुक्त प्रतिमाये एवं वास्तुखंड प्राप्त हुवे है| उनमे रूद्रशिव के नाम से सम्भोधित कि जाने वाली एक प्रतिमा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है या विशाल एकाश्मक द्विभुजी प्रतिमा समभगमद्रा में खड़ी हुई है तथा इसकी उचाई २.७० मीटर है| यह प्रतिमा शास्त्र के लक्षणों कि दृष्टी से विलक्षण प्रतिमा है| इसमें मानव अंग के रूप में अनेक पशु मानव अथवा देवमुख एवं सिह मुख बनाये गए है| इसके सिर का जटामुकुट (पगड़ी)जोड़ाशर्पो से निर्मित है| ऐसा प्रतीत होता है यहाँ के कलाकार को सर्प–आभूषण बहुत प्रिय था क्योकि प्रतिमा में रूद्रशिव का कांटे हात एवं उंगलियों को सर्प कि भांति आकर दिया गया है| इसके अतिरिक्त प्रतिमा के उपरी भाग पर दोनों ओर एक–एक सर्पफन छत्र कंधो के ऊपर प्रदर्शित है| इसी तरह बाये पैर में लिपटे हुवे फणयुक्त सर्प का अंकन है| दुसरे जीव जन्तुवो में मोर से कान एव कुंडल,आखो कि भोहे एव नाक छिपकली से मुख कि ठुड्डी केकड़ा सा निर्मित है| तथा भुजाये मकरमुख से निकली है| सात मानव अथवा देवमुख शरीर के विभिन्न अंगो से निर्मित है| ऊपर बतलाये अनुसार अद्वितीय होने के कारण विद्वानों के बीच इस प्रतिमा कि सही पहचान को लेकर अभी भी विवाद बना हुवा है| शिव के किसी भी ज्ञात स्वरुप के शास्त्रोक्त प्रतिमा लक्षण पूर्ण रूप से न मिलने के कारण इसे शिव के किसी स्वरुप विशेष कि प्रतिमा के रूप में अभियान सर्वमान्य नहीं है| निर्माण शैली के आधार पर ताला क पुरावशेषो को छठी ईस्वी के पूर्वाद्ध में रखा जा सकता है| जेठानी मंदिर :- दक्षिणाभिमुखी यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है| भग्नावशेष के रूप में ज्ञात सरंचना उत्खनन अनावृत किया गया है| किन्तु कोई भी इसे देखकर इसकी भू–निर्माण योजना के विषय में जान सकता है| सामने इसमें गर्भगृह एवं मण्डप है| जिसमे पहुचने के लिए दक्षिण, पूर्व एवं पश्चिम दिशा से प्रविष्ट होते है| मंदिर का प्रमुख प्रवेश द्वार चौड़ी सीढियों से सम्बद्ध था| इसके चारो ओर बड़े एवं मोटे स्तंभों कि यष्टिया बिखरी पड़ी हुई है और यहाँ अनेक प्रतितो के अन्कंयुक्त है स्तम्भ के निचले भाग पर कुम्भ बने हुए है स्तंभों के उपरी भाग पर आमलक घट पर आधारित दर्शाया गया है जो कीर्तिमुख से निकली हुई लतावल्ली से अलंकृत है| मंदिर का गर्भगृह वाला भाग बहुत ही अधिक क्षतिग्रस्त है| और मंदिर के ऊपरी शिखर भाग के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुई है| दिग्पाल देवता या गजमुख चबूतरे पर निर्मित किये गए है| निसंदेह ताला स्थित स्मारकों के अवशेष भारतीय स्थापत्यकला के विलक्षण उदाहरण है| छत्तीसगढ़ के स्थापत्य कला कि मौलिकता इसके पाषाण खंड से जीवित हो उठी है।